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________________ २२२ श्रीशान्तिनाथपुराणम् प्रवाहादयोऽस्य कृत्स्नाः स्युय॑खनस्य च । एकोऽवग्रह एव स्यान्न बर्मनसोश्च सः ॥१॥ मतेरिति विकल्पोऽयं षट्त्रिंशत्विशतं भवेत् । इन्द्रियावग्रहायीनां प्रपश्चन अपश्चितम् ॥२॥ मतिपूर्व श्रुतं शेयं तपनेकद्वादशात्मकम् । पर्यायादिस्वरूपेण विविधेनोपलक्षितम् ॥८॥ पथावधिः 'सुमेधोभिः भयोपशमसंभवः । • भवप्रत्ययजश्चेति द्विप्रकारोऽभिधीयते ॥४॥ देवानां नारकारणां च भवप्रत्ययजोऽवषिः । षड्विकल्पस्तु शेषाणां क्षयोपशमजो भवेत् ॥८॥ अनुगोऽननुगामी च तदवस्थोऽनवस्थितः । प्रवृद्धो हीयमानश्च स्यादित्वं षड्विषोऽवधिः ॥८६॥ मनःपर्ययबोषो हि विनफारस्तपाल्यया । भवेहजुमतिः पूर्वो पिपुलादिमतिः परः ॥७॥ कालाजुमतिन्यू नात्स्वस्थान्येषां च सन्ततम् । भवान् वित्रांस्तथोत्कर्षात्सप्ताष्टानवगच्छति ॥८॥ जघन्येनापि गम्यूतिपृथक्त्वं क्षेत्रतस्तथा । स योजनपृथक्त्वं च समुत्कर्षेण वीक्षते ॥६॥ अवग्रहादिक सभी भेद होते हैं परन्तु व्यञ्जन का एक अवग्रह ही होता है। वह व्यञ्जनावग्रह चक्षु और मन से नहीं होता है ॥८१॥ मतिज्ञान का यह विकल्प तीनसौ छत्तीस होता है जो कि इन्द्रियावग्रहादि के विस्तार से विस्तृत होता है । भावार्थ-बहु बहुविध आदि बारह प्रकार के पदार्थों के अवग्रहादि चार ज्ञान पांच इन्द्रियों और मन के निमित से होते हैं इसलिए १२४४४६२८८ दो सौ अठासी भेद होते हैं उनमें व्यञ्जनावग्रह के १२४४-४८ अड़तालिस भेद मिला देने से मतिज्ञान के तीन सौ छत्तीस भेद होते हैं ।।२।। - जो ज्ञान मतिपूर्वक होता है उसे श्रुतज्ञान जानना चाहिए। यह श्रुत दो अनेक तथा बारह प्रकार का होता है । इन के सिवाय यह पर्याय आदि विविध भेदों से भी सहित है। भावार्थ-श्रुत ज्ञान के मूल में अङ्ग बाह्य और अङ्ग प्रविष्ट के भेद से दो भेद हैं । पश्चात् अङ्ग बाह्य के अनेक भेद हैं और अङ्गप्रविष्ट के आचाराङ्ग आदि बारह भेद हैं। श्रुतज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम के तारतम्य से इसके पर्याय, पर्यायसमास, अक्षर, अक्षरसमास आदि बीस भेद भी होते हैं ।।८३।। अब अवधिज्ञान का वर्णन किया जाता है विद्वज्जनों के द्वारा अवधिज्ञान, क्षयोपशमनिमित्तक और भवप्रत्यय के भेद से दो प्रकार का कहा जाता है ।।८४॥ भवप्रत्ययज-भवरूप कारण से होने वाला अवधिज्ञान देव और नारकियों के होता है तथा क्षयोपशमज-अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होने वाला अवधिज्ञान छह प्रकार का है और वह मनुष्य तथा तिर्यञ्चों के होता है ।।८।। अनुगामी, अननुगामी, अवस्थित, अनवस्थित, वर्धमान और हीयमान इस तरह क्षयोपशमज अवधि ज्ञान छह प्रकार का है ॥८६।। मतिज्ञान दो प्रकार का है पहला ऋजुमति और दूसरा विपुलमति ।।८७।। ऋजुमतिज्ञान जघन्य रूप से काल की अपेक्षा अपने तथा दूसरों के दो तीन भवों को निरन्तर जानता है और उत्कृष्ट रूप से सात आठ भवों को जानता है ।।८८। क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य रूप से दो तीन कोश और उत्कृष्ट रूप से सात पाठ योजन की बात को जानता है ।।८६॥ विपुलमति मनःपर्ययज्ञान काल की १ सुबुद्धियुक्त; २ द्वौ वा त्रयो वा इति द्वित्रास्तान् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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