SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 266
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चदशः सर्गः २२१ विज्ञेया मिर्जराप्येकदेशसंक्षयलक्षणा ।प्रशेषकर्मणां मोक्षोः मोक्ष इत्यभिधीयते ॥७॥ 'प्रभिधास्थापनाद्रव्य मावर्भावा यथायवम् । न्यस्या जीवादयः सम्यक् तत्स्वरूपावबोधिना ॥७॥ निर्देशात्स्वामितायाश्च साधनाच्च विधानतः । स्थितेरपाधिकरणादनुयोज्याश्च नित्यशः ॥७२।। तेषामधिगमः कार्यः प्रमाणाम्यां नयैरपि । प्रमाणं द्विविधं तच्च मत्याविज्ञानपञ्चकम् ॥७३॥ मतिः श्रुतं चावधिश्च , ममापर्ययनामाबलेन समं विद्यात् पञ्च ज्ञानान्यनुक्रमात् ॥५४॥ पाने परोक्षमित्युक्तं प्रत्यक्ष मितरत्रयम् । विनरथेन्द्रियस्वान्तनिमिता मतिरिष्यते ।।७५॥ प्रवग्रहो विवां वर्चरोहाचाचश्च धारणा। परिनिर्धारितो वो मोरिति चतुर्विधः ॥७६।। प्रथेन्द्रियार्थसंपातसमनन्तरमेव च । प्रवाहणमाद्य यसदवग्रहरणमुच्यते ॥७७॥ ईहा चाव गृहीतेऽर्थे तद्विशेषाभिकाङक्षणम् । प्रर्ये विशेषविज्ञातेवायो यावात्म्यवेदनम् ॥७॥ प्रवेताद्वस्तुनस्तस्मादविस्मरणकारणम् । प्रपि कालान्तरात्सम्यग्धारणेत्यवगम्यताम् ॥७॥ बहुर्बहुविवक्षिप्रोऽनुक्तश्चानिःसृतो ध्रवः । इत्येतेऽवग्रहादीनां भेदा द्वादश सेतरा: ॥५०॥ का क्षय होना निर्जरा का लक्षण जानना चाहिए तथा समस्त कर्मों का छूट जाना मोक्ष कहलाता है ॥७०॥ वे जीवादिक पदार्थ, उनका स्वरूप जानने वाले मनुष्य के द्वारा नाम स्थापना द्रव्य और भाव निक्षेपों से यथायोग्य अच्छी तरह व्यवहार करने के योग्य हैं ॥७१॥ निर्देश स्वामित्व साधन, विधान, स्थिति और अधिकरण के द्वारा भी निरन्तर चर्चा के योग्य हैं ॥७२।। प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से दो प्रकार के प्रमाण तथा नैगमादि अनेक नयों के द्वारा उनका ज्ञान करना चाहिए। प्रमाण दो प्रकार का है और मतिज्ञानादि पञ्चज्ञान रूप है ॥७३॥ मति श्रुत अवधि मनःपर्यय और केवल, अनुक्रम से ये पांच ज्ञान जानना चाहिए ।।७४।। आदि के दो ज्ञान परोक्ष हैं और शेष तीन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं । जिनेन्द्र भगवान् ने मतिज्ञान की उत्पत्ति इन्द्रिय और मन की निमित्त से मानी है ॥७५।। श्रेष्ठ ज्ञानियों ने अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा इस प्रकार मतिज्ञान के चार भेद निर्धारित किये हैं ।।७६।। इन्द्रिय और पदार्थ का सम्बन्ध होने के बाद ही जो प्रथम ग्रहण होता है वह अवग्रह कहलाता है ।।७७।। अवग्रह के द्वारा गृहीत पदार्थ में जो उसके विशेष रूप को जानने की इच्छा है वह ईहा ज्ञान है । विशेष रूप से जाने हुए पदार्थ का जो यथार्थ जानना है वह अवाय कहलाता है ।।७८।। अवाय के द्वारा जाने हए पदार्थ को कालान्तर में भी न भलने का जो कारण है वह धारणा ज्ञान है ऐसा अच्छी तरह जानना चाहिए ॥७९॥ बहु बहु विध क्षिप्र अनुक्त अनिःसृत तथा इनसे छह विपरीत इस प्रकार ये सब मिलकर अवग्रहादिक के बारह बारह भेद होते हैं ।।८०।। अर्थ के १ नामस्थापनाद्रव्यभावः २ पदार्थाः ३ व्यवहारयोग्या: ४ अवग्रहगृहीते ५ एककविधाक्षिप्रोक्त निःसृताध्र वपदार्थः सहिताः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy