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श्रीशान्तिनाथपुराणम् ज्योतिषां पतयो मास्वत्स्वप्रभामालभारिणः। संजाततस्वरुचयो निषेधुनिकवा' विभुम् ॥५६॥ तीक्ष्य कौतुकेनेव निश्चलाक्षा दिवौकसः । सहस्राक्षादयस्तस्थुः समया' तं समानताः ॥६॥ दानशीलोपवासेज्याक्रियाभिः प्रथितास्तदा । नमन्तस्तं विभान्ति स्म नृपा नारायणादयः ॥६॥ त्यक्त्वा शाश्वतिकं वैरं तिर्यचोऽचितवृत्तयः । हरीभाद्याः स्म सेवन्ते स्मरन्तः स्वं पुरामवम् ॥६२॥ एवं द्वादशवर्गीयैः परीतं परमेश्वरम् । ततः संक्रन्दनो धर्म पृच्छति स्म कृताखला ॥३॥ ततः पृष्टस्य तेनेति भाषा प्रावतः प्रभोः। सर्वमाषात्मिका सार्वी सर्वतत्वकमातृका ॥४॥ सम्यक्त्वज्ञानवृतानि धर्म इत्यवगम्यताम्। सम्यक्त्वमथ तत्वार्थश्रद्धानमभिधीयते ॥६॥ निसर्गाधिगमौ तस्य स्यातां हेतू सुनिश्चितौ । तत्र प्रशमसंवेगास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणम् ॥६६॥ जीवाजीवालवा बन्धसंवरो निर्जरा परा। अपवर्गा इंति ज्ञेयास्तत्त्वार्थाः सप्त सूरिभिः ॥६७।। चेतनालक्षणो जीवो जीवस्तल्लक्षणेतरः । कर्मणामागमद्वारमानवः परिकीर्तितः ॥६॥ परस्परप्रदेशानुप्रवेशो जीवकर्मणोः । बन्धोऽप्यास्रवसंरोधलक्षणः संवरोऽपरः ॥६६॥
उत्पन्न हुई थी ऐसे ज्योतिषी देवों के स्वामी भगवान् के समीप बैठे थे ।।५६।। यह देख कौतुक से ही मानों जिनके नेत्र निश्चल हो गये थे ऐसे सौधर्मेन्द्र प्रादि कल्पवासी देव नम्रीभत होकर भगवान के निकट बैठे थे ॥६०॥ जो उस समय दान शील उपवास तथा पूजा आदि की क्रियाओं से प्रसिद्ध थे ऐसे नारायण आदि राजा उन्हें नमस्कार करते हुए सुशोभित हो रहे थे ॥६१॥ उत्तम मनोवृत्ति से युक्त सिंह तथा हाथी आदि तिर्यञ्च शाश्वतिक वैर को छोड़कर अपने पूर्वभव का स्मरण करते हुए उन भगवान् की सेवा कर रहे थे ॥६२।। तदनन्तर इस प्रकार की बारह सभाओं से घिरे हुए भगवान् शान्तिनाथ से इन्द्र ने हाथ जोड़कर धर्म का स्वरूप पूछा ॥६३॥
तदनन्तर इन्द्र के द्वारा इस प्रकार पूछे हुए भगवान् की वह दिव्यभाषा प्रवृत्त हुयी जो सर्वभाषा रूप थी, सब का कल्याण करने वाली थी और समस्त तत्त्वों की अद्वितीय माता थी ॥६४।। उन्होंने कहा-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र धर्म है यह जानना चाहिए। इसके अनन्तर तत्त्वार्थ का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है ॥६५॥ उस सम्यग्दर्शन के निसर्ग और अधिगमगुरुदेशना आदि सुनिश्चित हेतु हैं। उस सम्यक्त्व के सराग और वीतराग के भेद से दो भेद हैं उनमें प्रशमसंवेग तथा आस्तिक्य आदि गुणों की अभिव्यक्ति होना सराग सम्यक्त्व का लक्षण है और प्रात्मा की विशुद्धि मात्र होना वीतराग सम्यक्त्व है ।।६६।।
जीव अजीव प्रास्रव बन्ध संवर उत्कृष्ट निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्वार्थ विद्वज्जनों के द्वारा जानने के योग्य हैं ।।६७।। जीव चेतना लक्षण वाला है, अजीव अचेतना लक्षण से सहित है, कर्मों के आगमन का द्वार प्रास्रव कहा गया है ।।६८।। जीव और कर्म के प्रदेशों का परस्पर अनुप्रवेश-क्षीर नीर के समान एक क्षेत्रावगाह होना बन्ध है । प्रास्रव का निरोध होना संवर है ।।६६।। एक देश कर्मों
१निकटे २निनिमेषनयना ३ निकटे
४ सिंहगजप्रभृतयः ५ सर्वहितकरी ।
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