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________________ पञ्चदशः सर्गः २१९ पूर्वदक्षिणभागादिस्थित्यासोनं परीत्य तम् । द्वादश द्वादशाङ्गामा गणा गणधरादिकाः ॥५०।। 'यमंधरा गुणाधाराश्चक्रायुषपुरस्सराः । तं धर्मचक्रिरणं नाथमुपासांचक्रिरे क्रमात् ॥५१।। सुविशुद्धविकल्पोत्यसम्यक्त्वाकल्पशोभिताः । मानेमः कल्पवासिन्यस्तं स्वसंकल्पसिद्धये ॥५२॥ तपःश्रियो यथा मूर्ताः भाम्स्याविगुणभूषणाः। मार्याशयास्तमार्येशमायिकाः पर्युपासिरे ॥५३॥ ज्योतिर्लोकनिवासिन्यस्तत्वज्योतिषि सादराः। प्रासेदुरावरानाथमुप नाथितमुक्तयः ॥५४॥ मुकुलीकृत हस्तापपल्लवोत्तंसितालिकाः । विस्मयातं नमन्ति स्म बानम्यन्तरयोषितः ॥५५॥ मासेवन्त तमानम्य सौम्यमानसवृत्तयः। विशदीभूततद्भक्तिभावना पभावनाङ्गानाः ॥५६॥ विशुद्धिपरिणामेन प्रणम्रमरिणमौलयः । उपास्थिषत भव्येशं भावना' भवहानये ॥५७॥ व्यन्तरा तं नमन्ति स्म शुद्धान्तःकरणक्रियाः । विमुक्तये विमुक्तेशं मुक्तालंकारसुन्दराः ॥८॥ विस्तृत होता है और ठहरने के स्थान में तीन धनुष अर्थात् बारह हाथ विस्तृत रहता है ऐसा धर्मचक्र भगवान के आगे उत्तम धर्म के अङ्ग के समान सुशोभित हो रहा था ॥४६॥ विद्यमान भगवान् को प्रदक्षिणा रूप से घेर कर पूर्व दक्षिण भाग आदि के रूप में स्थित गणधर आदिक बारह गण थे जो द्वादशाङ्ग के समान जान पड़ते थे । भावार्थ - भगवान् शान्तिनाथ गन्ध कुटी के बीच में विद्यमान थे और उन्हें घेर कर प्रदक्षिणा रूप में बारह सभाएं बनी हुई थी जिनमें गणधर आदि बैठते थे ।।५।। गुणों के आधारभूत चक्रायुध आदि मुनि, धर्मचक्र से युक्त उन शान्ति प्रभु की क्रम से उपासना करते थे ॥५१॥ अत्यन्त विशुद्ध विकल्प से उत्पन्न सम्यग्दर्शन रूपी आभूषणों से सुशोभित कल्प वासिनी देवियां अपना संकल्प सिद्ध करने के लिए उन भगवान् को नमस्कार करती थीं ॥५२।। जो मूर्तिधारिणी तपोलक्ष्मी के समान थीं तथा क्षमा आदि गुण ही जिनके आभूषण थे ऐसी निर्मल अभिप्राय वाली आर्यिकाएं आर्यजनों के स्वामी श्री शान्तिनाथ भगवान् की उपासना करती थीं ॥५३॥ तदनन्तर जो तत्त्वज्ञान रूपी ज्योति में आदर भाव से सहित थीं तथा मुक्ति की याचना कर रहीं थीं ऐसी ज्योतिष लोक की निवासिनी देवियां आदरपूर्वक भगवान् के समीप बैठी थीं ॥५४।। जिनके ललाट कुड्मलाकार हाथों के अग्रभाग रूपी पल्लवों से सुशोभित हैं अर्थात् जिन्होंने हाथ जोड़ कर ललाट से लगा रक्खे हैं ऐसी व्यन्तर देवाङ्गनाएं आश्चर्य से उन प्रभु को नमस्कार करती थीं ॥५५।। जिनकी मनोवृत्ति सौम्य थी तथा जिनकी भगवद् विषयक भक्ति भावना अत्यन्त निर्मल थीं ऐसी भवनवासी देवाङ्गनाएं नमस्कार कर उन शान्ति जिनेन्द्र की सेवा कर रही थीं ।।५६॥ विशुद्धि रूप परिणामों से जिनके मणिमय मुकुट अत्यन्त नम्रीभूत हो रहे थे ऐसे भवनवासी देव संसार की हानि के लिए उन भव्यों के स्वामी शान्ति प्रभु के निकट स्थित थे अर्थात् उनकी उपासना कर रहे थे ॥५७।। जिनके अन्तःकरण की क्रिया शुद्ध थी तथा जो मोतियों के अलंकार से सुन्दर थे ऐसे व्यन्तर देव मुक्ति प्राप्त करने के लिए उन विमुक्त जीवों के स्वामी शान्ति प्रभु को नमस्कार कर रहे थे ॥५८।। जो अपनी देदीप्यमान प्रभारूपी माला को धारण कर रहे थे तथा जिन्हें तत्त्व विषयक रुचि ३ याचितमुक्तयः ४ सलाटाः ५ भवनवासिदेव्यः । १ मुनयः २ उत्तमाभिप्राया। ६ भवनवासिनो देवा: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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