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श्रीशान्तिनाथपुराणम् कान्तमन्तवनरन्तः कामशालादिशालिभिः । नृसुरासुरसंभोगसंविमागोपशोमितः ।।३।। चतुरमश्रिवा युक्तमपि वृत्तं समन्ततः । द्विनवक्रोशविस्तीर्णमप्याकीर्णत्रिविष्टपम् ।।४॥ मासीस्त्रिलोकसारादिशताह्वयमनुत्तमम् । उत्तमं तस्य नाथस्य पुरन्दरकृतं पुरम् ॥४१॥
[चतुष्कलम् तस्मिन्गन्धकुटीसौधमध्यस्थ हरिनिर्मितम् । हरिविष्टरमध्यास्त प्राङ मुखः परमेश्वरः ।।४२॥ सम्बन्योजनविस्तीरणं शाखामण्डलमण्डपम् । प्रादुरासीदशोक दुविद्रु'मस्तवकानतः ॥४३॥ पुष्पवृष्टिदिवोऽपप्तत कथं ते पुष्पकेतुता । इति निर्भसंयन्तीव भारं 'मधुलिहां रुतः ।।४४।। त्रिच्छत्री व्याजमादाय रत्नत्रयमिवामलम् । उपर्याविरभूद्धर्तुमुक्तिसोपानलीलया ॥४५।। प्रयमेव त्रिलोकोशः 'पुष्पकेतुजयोन्नतः । इतीव घोषयन्नुच्चैर्दध्वान दिवि दुन्दुभिः ।।४६।। चतुःषष्टिवलक्षारिण' चामराण्यभितो विभुम् । यक्षाहीन्द्रधुतान्यूहयोत्स्नाकल्लोलविभ्रमम् ॥४७।। परावरान् भवान्भव्यो यस्मिन् स्वान् सप्त वीक्षते । तद्धामण्डलमत्युद्धमतीतज्योतिरुद्ययौ ॥४८॥ याने योजनविस्तीरणं स्थाने क्षत्त्रयसंमितम्। धर्मचक्र पुरो भतुं: सुधर्माङ्गाबदाबभौ ॥४६।।
और असुरों के संभोग कक्षों से सुशोभित वनों से सुन्दर था, चौकोर शोभा से युक्त होने पर भी जो सब ओर से गोल था (पक्ष में विविध शोभा से सहित होकर गोलाकार था), अठारह कोश विस्तृत होकर भी जिसमें तीनों लोक समाये हुए थे, जो त्रिलोकसार आदि सैकड़ों नामों से सहित था, जिससे उत्तम और दूसरा नहीं था, तथा जो इन्द्र के द्वारा निर्मित था ऐसा उन भगवान् का उत्कृष्ट नगरसमवसरण था ।।३८-४१॥
उस समवसरण में गन्धकुटी रूपी भवन के मध्य में स्थित जो इन्द्र निर्मित सिंहासन था उस पर शान्ति जिनेन्द्र पूर्वाभिमुख होकर विराजमान हुए ॥४२॥ जो एक योजन विस्तृत शाखामण्डल रूप मण्डप को धारण कर रहा था तथा मूगाओं के गुच्छों से नम्रीभूत था ऐसा अशोक वृक्ष प्रकट हुया ।।४३॥ आकाश से वह पुष्पवृष्टि पड़ रही थी जो भ्रमरों के शब्दों से कामदेव को मानों यह कहती हुई डांट रही थी कि हमारे रहते तेरा पुष्प केतु पन कैसे रह सकता है ? ।।४४।। भगवान् के ऊपर छत्रत्रय का बहाना लेकर मानों वह निर्मल रत्नत्रय प्रकट हुआ था जो मुक्ति की सीढ़ियों के समान जान पड़ता था ॥४५।। आकाश में दुन्दुभि शब्द कर रहा था मानों वह उच्च स्वर से इस प्रकार की घोषणा कर रहा था कि यह त्रिलोकीनाथ ही कामदेव पर विजय प्राप्त करने से सर्वोत्कृष्ट है ।।४६।। प्रभु के दोनों ओर यझेन्द्र और धरणेन्द्र के द्वारा ढोले गये चौंसठ सफेद चमर चांदनी की लहरों की शोभा को धारण कर रहे थे ।।४७।। जिसमें भव्यजीव अपने आगे पीछे के सात भव देखते हैं वह अतिशय श्रेष्ठ अत्यधिक ज्योति सम्पन्न भामण्डल प्रकट हुा ।।४८।। जो गमन काल में एक योजन
६ भ्रमराणां
१ इन्द्रनिमितम् २ सिंहासनम् ३ अशोकवृक्षः ४ प्रवालगुच्छकावनत: ५ कामं ७त्रयाणां छत्राणां समाहार: त्रिछत्री तस्या व्याज छलं ८ मरनविजयोग्रतः धवलानि ।
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