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________________ पञ्चदशः सर्गः २१७ अपरेछ यथाकाल कायस्थित्यर्षमर्षवित् । मन्दिराख्यं पुरं स्वामी प्राविशच्चारुमन्दिरम् ॥२६॥ सुमित्रपरिवारित्वात्सुमित्रो नाम तत्पतिः। श्रद्धादिगुणसम्पन्नो विधिना तमभोजयत् ॥३०॥ सस्य प्रपश्चमामासुः पचाश्चर्य महीभुजः । । सुराः सुरसरिद्वारिपरिशुद्धयशोमियः ॥३१॥ संयमेन विशुद्धात्मा सामायिकविशुद्धिना । प्रतप्यत तपो नाथः परं षोडश वत्सरान् ।।३२।। सहलाम्रवने शुद्धा शिला नन्दितरोरधः । मध्यास्य शुक्लमध्यासीद्घातुकं घातिकर्मणाम् ॥३३॥ दशम्यामपराहऽय पौषे मासि समासदत् । भरण्या केवलज्ञानं लोकालोकप्रकाशकम् ॥३४॥ अनन्तज्ञानहग्वीर्यसुखरन्ता समन्धितः । अनन्तज्योतिरित्यासीदनन्त चतुराननः ।।३५॥ कृतार्थोऽपि परार्थाय प्रवृत्ताभ्युदयस्थितिः। स्वान्तस्थाखिलभावोऽपि व्यरुचन्निः परिग्रहः ।।३६।। घनप्रमा प्रभामूतिरालोक इति मूतिभिः । . तिसृभिस्त्रिजगन्नाथस्तदेकोऽप्यत्यभासत ॥३७॥ चतुर्गोपुरसंपन्नं रत्नशालत्रयान्वितम् ।.कामवं कामिना सेव्यर्बाह क्यानमण्डलैः ॥३८॥ ज्ञान प्राप्त हो गया ।।२८॥ अन्य दिन प्रयोजन के ज्ञाता भगवान् ने समयानुसार आहार प्राप्ति के लिये सुन्दर भवनों मे सहित मन्दिर नामक नगर में प्रवेश किया ॥२६।। सुमित्र-अच्छे मित्र रूप परिवार से युक्त होने के कारण जो सुमित्र नामका धारक था तथा श्रद्धा आदि गुणों से संपन्न था ऐसे वहां के राजा ने उन्हें विधि पूर्वक आहार कराया ॥३०॥ गङ्गा के जल के समान निर्मल यश के भाण्डार स्वरूप उस राजा के देवों ने पञ्चाश्चर्य विस्तृत किये ॥३१॥ सामायिक की विशुद्धि से सहित संयम के द्वारा जिनकी आत्मा अत्यन्त विशुद्ध थी ऐसे उन भगवान् ने सोलह वर्ष तक उत्कृष्ट तप तपा ॥३२॥ तदनन्तर सहस्राम्रवन में नन्दिवक्ष के नीचे शुद्ध शिला पर आरूढ होकर उन्होंने घातिया कर्मों का क्षय करने वाले शुक्ल ध्यान को धारण किया ॥३३।। पश्चात् पौष शुक्ल दशमी के दिन अपराह्ण काल में भरणी नक्षत्र के रहते हुए उन्होंने लोका-लोक को प्रकाशित करने वाला केवलज्ञान प्राप्त किया ।।३४।। अन्तरङ्ग में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्त वीर्य से सहित वे भगवान् अनन्तज्योति और अनन्त चतुरानन इस नाम से प्रसिद्ध हुए ॥३५॥ जो कृतकृत्य होकर भी पर प्रयोजन के लिए प्रवत्त अभ्युदय की स्थिति से सहित थे-ज्ञान कल्याणक महोत्सव से युक्त थे और जो समस्तपदार्थों को हृदय में धारण करते हुए भी परिग्रह से रहित थे ऐसे वे शान्ति जिनेन्द्र अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे ॥३६।। उस समय वे त्रिलोकीनाथ एक होकर भी घनप्रभा, प्रभामूर्ति और आलोक इन तीन मूर्तियों से अत्यधिक सुशोभित थे। भावार्थ-उनका दर्शन करने वाले को पहले अनुभव होता था कि भगवान् के शरीर से सघन प्रभा प्रकट हो रही है, पश्चात् अनुभव होता था कि प्रभा ही उनका शरीर है और अन्त में ऐसा जान पड़ता था कि एक प्रकाश ही है इस प्रकार एक होने पर भी वे तीन शरीरों से युक्त प्रतीत होते थे ॥३७।। जो चार गोपुरों से सहित था, रत्नमय तीन कोटों से युक्त था, सेवनीय बाह्य उपवनों के समूह से कामी मनुष्यों को काम का देने वाला था, भीतर कामशाला आदि से युक्त तथा मनुष्य देव १ आहारार्थम् २ ज्ञानदर्शनावरणमोहान्तरावाणां । २८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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