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________________ २१६ श्रीशांतिनाथपुराणम् निर्गत्य सदसः स्वैरं चरणाभ्यामुदङ्मुखः । स्वामी भुवमिवास्प्रष्टु' 'पश्ववाणि पदान्यगात् ॥ १८॥ इति व्यवसिते तस्मिन्हतुमन्तद्विषां गरणम् । श्रानन्देन जगत्पूर्ण रराज सचराचरम् ।। १६ ।। नृत्तमय्यो दिशः सर्वा पुष्पवृष्टिमयं वियत् । सृष्टि: सुरमयीवासीत्तूर्यध्वनिमयो मही ॥२०॥ प्रारुरोह ततो नाथः शिविकां शिवकीर्तनः । पश्चादुनामितां किश्वित्सौधर्माद्यं : सुरेश्वरः ॥२१॥ तस्य चक्रायुधः पश्चानिरेंद् दृष्ट्या समन्वितः । मुमुक्षुः सुरसङ्घन वीक्ष्यमारणः सकौतुकम् ॥ २२ ॥ देवरारूढयानेन कुवंस्तेजोमयं वियत् । सहस्रास्रवनं प्रापद्गीर्वाणैः सवतो वृतम् ||२३|| स नन्दितलं नाथस्तत्रेन्त्रैरवतारितः । श्रध्यास्योदङ्मुखः सिद्धान्ववन्दे शुद्धया धिया ||२४|| ज्येष्ठा सित चतुर्दश्यां मरणिस्थे निशाकरे । अपराह्न प्रववाज *कृतषण्ठोऽभिनिष्ठितः ||२५|| मध्येपटलिकं न्यस्य मतुः केशानलिद्यु तीन् । वासवः सुमनोवासान्निदधौ क्षीरवारिधौ ||२६|| सहस्र सम्मितै भूपं भव्यताप्र रितात्मभिः । सार्धं शमपरो दक्षां दीक्षां चक्रायुधोऽग्रहीत् ॥२७॥ "प्रव्रज्यानन्तरोद्भूतसप्तलब्धिविभूषितः नाथः संप्रापदविपर्ययम् ॥ २८ ॥ स मन:पर्ययं शान्तिप्रभु सभा से निकल कर इच्छानुसार चरणों के द्वारा पृथिवी का स्पर्श करने के लिये ही मानों पांच छह डग पैदल चले थे || १८ || इस प्रकार जब वे अन्तःशत्रुओं के समूह को नष्ट करने के लिये उद्यत हुए तब चराचर सहित सम्पूर्ण जगत् श्रानन्द से सुशोभित होने लगा ।। १६ ।। उस समय सब दिशाएं नृत्यमय हो गयी थीं, आकाश पुष्पवृष्टिमय हो गया था, सृष्टि देवमयी हो गयी थी और पृथिवी वादित्रों के शब्द से तन्मय हो गयी थी || २० ॥ तदनन्तर प्रशस्त यश से युक्त शान्तिनाथ उस पालकी पर आरूढ हुए जो सौधर्म आदि इन्द्रों के द्वारा पीछे की ओर से कुछ ऊपर की ओर उठायी गयी थी ।। २१ ।। जो सम्यग्दर्शन से सहित था, मोक्ष का इच्छुक था और देव समूह जिसे कौतुक से देख रहा था ऐसा चक्रायुध शान्ति जिनेन्द्र के पीछे ही घर से निकल पड़ा ।। २२ ।। देवों के द्वारा धारण की हुई पालकी से आकाश को तेजोमय करते हुए शान्ति जिनेन्द्र उस सहस्राम्र वन में पहुंचे जो देवों से सब ओर घिरा हुआ था ।। २३ ।। वहां इन्द्रों के द्वारा उतारे हुए शान्ति प्रभु ने नन्दीवृक्ष के नीचे बैठकर तथा ऊपर की ओर मुख कर शुद्ध बुद्धि से सिद्धों को नमस्कार किया ||२४|| उन्होंने ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी के दिन जब कि चन्द्रमा भरणी नक्षत्र पर स्थित था अपराह्न समय दिन के उपवास का नियम लेकर निष्ठा पूर्वक दीक्षा धारण की ।। २५।। इन्द्र ने भ्रमर के समान काले तथा फूलों से सुवासित भगवान् के केशों को पिटारे में रख कर क्षीर समुद्र में क्षेप दिया ||२६|| जिनकी ग्रात्मा भव्यत्व भाव से प्रेरित हो रही थी ऐसे एक हजार राजाओं के साथ प्रशमभाव में तत्पर चक्रायुध ने (कर्म शत्रुत्रों के नष्ट करने में) समर्थ दीक्षा ग्रहण की || २७॥ जो दीक्षा के अनन्तर प्रकट हुईं सात ऋद्धियों से विभूषित थे ऐसे उन शान्तिनाथ स्वामी ने सम्यक् मन:पर्यय ज्ञान प्राप्त किया । भावार्थ — उन्हें दीक्षा लेते ही सात ऋद्धियों के साथ मन:पर्यय १ पञ्च षड्वा इति पञ्चषारिण २ प्रशस्तयशा: ३ निरगच्छत् ४ कृतदिनद्वयोपवास: ५ दीक्षानन्तर प्रकटित बुद्धिविक्रियादिसप्तद्धिविभूषितः ६ सम्यग् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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