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श्रीशांतिनाथपुराणम् विवरस्यान्तर'ध्वानं सा सध्यानपताकिनी । प्रतीत्य तरसाध्यास्त रूप्याद्रेवनवेदिकाम् ॥१९॥ अपरागते पराजित्य पाश्चात्यं खण्मोजसा । सेनानाथे जगन्नाथो मध्यम खण्डमध्यगात् ।।१९६।। प्रथावर्तचिलाताल्यौ तत्रत्यनृपनायको । अभ्येत्यानमतां नाथं समं मेघमुखैः सुरैः॥१९॥ प्रकृत्वा शरसम्पात सहसा नतयोस्तयोः । अव्यक्तं शक्तिमाहात्म्यममवच्छत्रचर्मणोः ॥१६॥ व्यन्तरमुदितैरग्रे किरद्भिर्वन्यमञ्जरीः । ऋषभाद्रि प्रति प्रायाच्चक्री चक्रपुरस्सरः ।।१६।। तीर्थकृच्चक्रवर्ती च कौरव्यः शान्तिराख्यया। गोत्रेण काश्यपः सूनुरथराविश्वसेनयोः ॥२०॥ इति तत्र स्वहस्तेन लिलेख परमेश्वरः । पूर्वा पूर्वक्रमोपेतां यशो हि महतां धनम् ॥२०१।। हिमवत्कुष्टदेवोऽपि गङ्गासिन्धुसमन्वितः । सिषेवे प्राप्य लोकेशं पार्वतीयरुपायनैः ।।२०२॥ ततो निवृत्य रूप्याद्रि पनिकषा वासितं विभुम् । उपासाञ्चक्रिरे प्राप्य प्रज्ञप्त्या खेचरेश्वराः ॥२०३।। खण्डपातगुहाद्वारमुल्कोल्य बलनायकः । प्रानमय्याचिरात्खण्डं प्राच्यं निववृते ततः ॥२०४॥ पूर्ववत्तबलं जिष्णोनिर्गत्य विवरोदरात् ।अपाची विजयाचस्प वेदिकां प्रापदञ्जसा ॥२०५॥
वाली निमग्न सलिला और उन्मग्न सलिला नामक नदियों से सेना को पार उतारा था ।।१६४।। वह कोलाहल से युक्त सेना वेग से गुफा के भीतर का मार्ग पार कर विजयाध पर्वत की वनवेदिका में जा ठहरी ।।१६५।।
जब सेनापति प्रताप से पश्चिम खण्ड को पराजित कर वापिस लौट आया तब प्रभु मध्यम खण्ड की ओर गये ||१६६।। तदनन्तर वहां के राजाओं के नायक आवर्त और चिलात ने मेघमुख देवों के साथ आ कर प्रभु को नमस्कार किया ।।१६७।। क्योंकि वे दोनों राजा वारण वर्षा न कर शीघ्र ही नम्रीभूत हो गये थे इसलिए छत्ररत्न तथा चर्म रत्न की शक्ति का माहात्म्य प्रकट नहीं हो सका ।।१६८।। जिनके आगे आगे चक्ररत्न चल रहा था ऐसे शान्ति प्रभु ने अग्रभाग में वन की पुष्प
रियों को बिखेरने वाले प्रसन्न व्यन्तरों के साथ ऋषभाचल की ओर प्रयारण किया ॥१९॥ तदनन्तर वहां 'ऐरा और विश्वसेन का पुत्र कौरव वंशी, काश्यप गोत्री शान्तिनाथ, तीर्थंकर और चक्रवर्ती हुआ' इस प्रकार राजराजेश्वर शान्ति जिनेन्द्र ने पूर्व परम्परा से चला आया प्रशस्ति लेख अपने हाथ से लिखा सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुषों का धन यश ही होता है ।।२००-२०१।। गङ्गा सिन्धु देवियों से सहित हिमवत्कूट के देव ने भी आकर पर्वत सम्बन्धी उपहारों से शान्ति प्रभु की सेवा की ॥२०२।। वहां से लौटकर विजयाध पर्वत के निकट ठहरे हुए प्रभु के पास आकर विद्याधर राजाओं ने प्रज्ञप्ति नामक विद्या के द्वारा उनकी सेवा की ॥२०३॥ सेनापति खण्डपातनामक गुफा के द्वार को खोलकर तथा शीघ्र ही पूर्वखण्ड को नम्रीभूत कर वहां से लौट आया ॥२०४॥ तदनन्तर विजयी शान्ति जिनेन्द्र की वह सेना पहले के समान गुफा के मध्य से निकल कर अच्छी तरह विजया की दक्षिण वेदिका को प्राप्त हुई ।।२०५।। अखण्ड पराक्रम का धारक तथा प्रश्रान्त-न
१ अन्तर्मागं २ सशब्दसेना ३ प्रत्यावृत्ते सति, ४ वाणवृष्टि ५ विजयार्धस्य समीपे ।
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