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________________ चतुर्दशः सर्गः २११ करिणां 'वैजयन्तीमि जयन्तीभिरम्बुदान् । वैजयन्तं चमूःप्रापद् द्वारं लावणसैन्धवम् ।।१८४॥ परया संपवाऽभ्येत्य धरा वरतनुः प्रभोः । अदिताप चितिं कृत्वा यथोक्तादधिकं करम् ॥१८॥ मनीनमत्ततोऽन्वन्धि प्राप्य 'प्राचेतसों दिशम् । दूरादेव प्रभासं च ' प्रभासंचयभासुरम् ॥१८६॥ प्रमोवाद् वसतोः काश्चिदनुयान्तं विसऱ्या तम्। "अनुकूलं तत: सिन्धोर''नुकूलं समापतत् ॥१८७॥ संप्राप्य विजयाधस्य तद्वलं वनवेदिकाम् । तस्या मनोरमोपान्तं तोरणद्वारमावसत् ॥१८८।। विजयाद्ध कुमारेण दत्ता_दिकसत्कियः । ततो निवृत्य संप्रापत् स तमिस्रागुहामुखम् ॥१८६।। तत्रानन्दमरव्यग्रः कृतमालाभिधा सुरः । स्वहस्तकृतमालाभिरानर्च विभुमादृतः ॥१०॥ गुहामुखं समुद्घाटघ सेनापतिरनेहसा' । विधेयं पश्चिम खण्डं विधायारान्यवर्तत ॥१६१॥ प्रातिष्ठत ततो नाथ: शान्तोष्मरिण गुहामुखे। उत्तरं भरतं जेतु प्रतापानतमप्यलम् ॥१६२।। उदंशुद्वादशामिल्यकाकिण्या वन' मण्डलम् । तमो व्यपोहयामास सेनानायो गुहोदरात् ॥१३॥ ११धुनों निमग्नसलिलां तत्रोन्मग्नजलामपि । सेनामतीतरत्तक्ष्णा तत्क्षणाबद्धसंक्रमः ॥१९४॥ वाली हाथियों की पताकाओं से उपलक्षित वह सेना लवण समुद्र के वैजयन्त द्वार को प्राप्त हुई ।।१८४।। वरतनु नामक देव ने बहुत भारी संपदा के साथ प्रभु की भूमि के सम्मुख आकर उनकी पूजा की और यथोक्त कर से अधिक कर दिया ॥१८॥ तदनन्तर उन्होंने समुद्र के किनारे किनारे पश्चिम दिशा में जा कर प्रभा के समूह से देदीप्यमान प्रभास नामक देव को दूर से ही नम्रीभूत किया ॥१८६॥ हर्ष से कितने ही पड़ाव तक साथ आने वाले उस अनुकूल-अनुगामी देव को विदा कर समुद्र के किनारे चलती हुई प्रभु की सेना विजयार्ध की वनवेदिका को प्राप्त हुई और उसके मनोहर तोरण द्वार के समीप ठहर गयी ।।१८७-१८८।। तदनन्तर विजयाद्ध कुमार देव के द्वारा जिन्हें अर्घादिक सत्कार दिया गया था ऐसे शान्ति प्रभु वहां से लौटकर तमिसा गुहा के द्वार पर आये ॥१८६।। वहां प्रानन्द के भार से व्यग्र कृतमाल नामक देव ने बड़े आदर के साथ अपने हाथ से निर्मित मालाओं के द्वारा प्रभु की पूजा की ॥१०॥ गुहामुख को खोल कर सेनापति कुछ समय के लिए पश्चिम खण्ड में चला गया और उस खण्ड को अनुकूल कर वहां से लौट आया ।।१६१।। तदनन्तर गुहामुख की गर्मी शान्त हो चुकने पर प्रभु ने प्रताप से नम्रीभूत होने पर भी उत्तर भारत को जीतने के लिये प्रस्थान किया ।।१६२।। जिस प्रकार सूर्य मण्डल अन्धकार को नष्ट कर देता है उसी प्रकार सेनापति ने प्रचण्ड किरणों से युक्त सूर्य के समान शोभावाले काकिणी रत्न के द्वारा गुहा के मध्य से अन्धकार को दूर हटा दिया ।।१६३।। स्थपति के द्वारा जिन्होंने तत्काल पुल की रचना करायी थी ऐसे प्रभु ने उस गुफा के भीतर मिलने १ पताकाभिः २ वै-निश्चयेन ३ अम्बुदान् जयन्तीभिः पराभवन्तीभिः ४ एतन्नामधेयं ५ लवण सिन्धोरिदं लावणसैन्धवं पूजाम् ७ मन्धिमनु अन्वब्धि सागरतटेन ८ पश्चिमाम् ९प्रभासदेवं, १० प्रभाया: संचयेनसमूहेन भासुरं देदीप्यमानं ११ अनुकूलता युक्त १२ अनुतटम् १३ कालेन १४ सूर्यमण्डलम् १५ नदीम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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