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________________ २१० श्री शान्तिनाथपुराणम् " नामं नामं प्रतिद्वारं क्षेपं क्षेपं समन्ततः । वृष्टिं रत्नमयीं भूपैः प्रेक्षितः कौतुकोत्थितैः ॥ १७४॥ मानस समां प्राप्य प्राभवीं पादपीठिकाम् । वर्धयन्मुकुटालोकं ष्टां सूपालमौलिभिः ।। १७५ ।। यद्दयं चक्रवतिभ्यः क्लृप्तमभ्यधिकं ततः । वितीर्येति जगन्नार्थ 'प्राचीनाथो व्यजिज्ञपत् ॥ १७६ ॥ भवदागमनस्यास्य चक्रोत्पत्तिर्न कारणम् । श्रवैमि सुकृतं हेतु मामकीनं महोदयम् ।। १७७॥ प्रसूतीतसम्राज प्रस्थानेन " रजस्वला । सेयं तवोपयानेन प्राची दिक्पावनीकृता || १७८ ।। अवदातं पुराकर्म प्रजाभिः किमकारि तत् । अपि लोकद्वये भर्ता येनावापि भवान्पतिः ।। १७६ ॥ पवमोऽप्यनुभावेन ज्येष्ठस्त्वमसि चक्रिरणाम् । सूतमेकं तवान्यच्च भावि चक्रं यतः प्रभोः || १८० ॥ जायते तब लोकेश बहुधापि प्रियं वदत् । न मृषोद्यों जनो जातु यतोऽनन्तगुणो भवान् ।। १८१।। इति प्रेयो' निगद्योच्चैनिषेव्य सुचिरं विभुम् । विसृष्टस्तेन सम्मान्य स्वावासं मागधोऽगमत् ।।१८२ ।। derationa तोषिताशेषसैनिकः । ततोऽनुसागरं नाथः प्रतस्थे दक्षिणां दिशम् ।। १८३॥ करता जाता था और कौतुक से खड़े हुए राजा लोग जिसे देख रहे थे ऐसे मागधदेव ने सभा में पहुंच कर राजाओं के मुकुटों से घिसी हुई प्रभु की पादपीठिका को मुकुटों के आलोक से बढ़ाते हुए उसकी पूजा की ।। १७४ - १७५ । । चक्रवर्तियों के लिये जो कुछ देने योग्य निश्चित है उससे अधिक देकर मागध देव ने जगत्पति से इस प्रकार कहा ।। १७६ ।। आपके इस आगमन का कारण चक्र की उत्पत्ति नहीं है । मैं तो महान् अभ्युदय से सहित अपने पुण्य को ही कारण मानता हूं ।। १७७ ।। प्रतीत चक्रवर्तियों के प्रस्थान से यह पूर्व दिशा रजस्वला - धूलिधूसरित ( पक्ष में ऋतु धर्म से युक्त ) हो गयी थी सो आपके शुभागमन से पवित्र हो गयी है। ।।१७८ ।। प्रजाओं ने पहले दोनों लोकों में कौन पुण्य कर्म किया था जिससे उसने आप जैसे स्वामी को प्राप्त किया ।।१७९ ॥ यद्यपि श्राप चक्रवर्तियों में पञ्चम हैं तो भी प्रभाव से प्रथम चक्रवर्ती हैं क्योंकि आप प्रभु का एक चक्र तो यह हो चुका है, दूसरा चक्र (धर्म चक्र ) आगे होगा ।। १५० ।। हे लोकेश ! आपके विषय में कोई कितना ही अधिक प्रिय क्यों न बोले परन्तु वह कभी असत्यवादी नहीं होता क्योंकि आप अनन्त गुणों से सहित हैं ।। १८१ ।। इस प्रकार उत्कृष्ट प्रिय वचन कह कर तथा बहुत काल तक प्रभु की सेवा कर प्रभु के द्वारा सन्मान पूर्वक विदा को प्राप्त हुआ मागधदेव अपने निवास स्थान को चला गया ।। १८२ ॥ तदनन्तर वेलावन—तटवर्ती वन के उपभोग से जिनके समस्त सैनिक संतुष्ट थे ऐसे प्रभु ने समुद्र के किनारे किनारे दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थान किया ।। १८३ || निश्चय से मेघों को जीतने १ नत्वा नत्वा २ क्षिप्त्वा क्षिप्त्वा ३ प्रभोरिय प्राभवी ताम् ४ मागधदेव: ५ धूलियुक्ता, आर्तवयुक्ता च, ६ एक चक्र चक्रवति चक्र भूतं समुत्पन्न, अन्यत् चक्र धर्मचक्र भावि भविष्यत् ७ असत्यवादी ६ सागरस्य तटेन । प्रियतरस् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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