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________________ २०६. चतुर्दशः सर्ग: इत्युदारमुदीर्यका वाणी वासरखण्डिता। सखीवाक्योपरोधेन भूयः प्रत्यग्रहीत्प्रियम् ॥१६४॥ इति दंपतिलोकेन प्रस्तुताग्योन्यसंगमाम् । प्रतिवाह्य निशां नाथः प्रतस्थे मागधं प्रति ।।१६५॥ वेदिका 'बलसंपातः पातयन् सौरसैन्धवीम् । प्रयाणैः प्रमितेः प्रापदुप कण्ठं महोदधेः ॥१६६॥ यावद्वेलावनोपान्त नाषितिष्ठन्ति सैनिकाः। तावत्प्रत्युद्ययौ माथं मागवः सह वेलया ।।१६७॥ स विस्मापयमानस्तत्सैन्यं सेनासमन्वितः। राजद्वारं समासाद्य "द्वारस्थाय न्यवेदयत् ।।१६८॥ भूपान्दयिमानः स प्राप्य संसद्गतं ततः। दौवारिक: प्रणम्येति राजराज' व्यजिज्ञपत ।।१६६॥ कृच्छरण वशमानायि य: पुरा भरतादिमिः । सोऽनद्वारं समासाद्य मागधो मागधायते ।।१७०॥ कस्त्वां विहक्षमारणस्य प्रस्तावोऽस्य भविष्यति । कदा देवेति विज्ञाप्य व्यरंसी द्वारपालकः ॥१७१।। किश्चित्कालमिवान्योक्त्या तिष्ठन्सभ्यः समं विभुः। प्रवेशयनमित्याह भूयस्तेन प्रचोदितः ॥१७२॥ स वाक्यानन्तरं भर्तुगत्वा मागधमादृतः । प्रावेशयत्प्रहृष्यन्तमचिरात्प्राप्तदर्शनात् ।।१७३।। होता है वह कितनी देर तक स्थिर रहता है ? अर्थात् बहुत शीघ्र नष्ट हो जाता है । इसप्रकार उदारता पूर्वक वाणी कह कर किसी एक वासरखण्डिता ने सखी वाक्य के अनुरोध से पति को फिर से स्वीकृत कर लिया।।१६३-१६४।। इसप्रकार स्त्री पुरुषों के द्वारा जहां परस्पर का संगम प्रारम्भ किया गया था ऐसी रात्रि को व्यतीत कर शान्ति जिनेन्द्र ने मगध देश की ओर प्रस्थान किया ।।१६५।। सेना के आक्रमण से गङ्गा नदी की वेदिका को गिराते हुए शान्ति जिनेन्द्र कुछ ही पड़ावों के द्वारा महासागर के समीप जा पहुंचे ।।१६६।। जब तक सैनिक वेलावन के समीप नहीं ठहरते हैं तब तक मागध देव वेला–जोरदार लहर के साथ शान्ति प्रभु की अगवानी के लिये आ गया ।।१६७।। शान्ति जिनेन्द्र की सेना को आश्चर्य चकित करते हुए उस मागधदेव ने सेना सहित राजद्वार को प्राप्त कर द्वारपाल से निवेदन कियाअपने आने की सूचना दी ॥१६८।। तदनन्तर राजाओं को दर्शन कराता हुआ वह द्वारपाल सभा में स्थित राजाधिराज शान्ति जिनेन्द्र के पास पहुंचा और प्रणाम कर इस प्रकार कहने लगा ॥१६॥ जो पहले भरत आदि के द्वारा बड़ी कठिनाई से वश में किया गया था वह मागध देव अग्रिम द्वार पर प्राकर चारण के समान आचरण कर रहा है ।।१७०।। वह आपके दर्शन करना चाहता है अतः हे देव ! उसके लिये कब कौन अवसर दिया जायगा, इतना निवेदन कर द्वारपाल चुप हो गया ।।१७१।। कुछ समय तक तो प्रभु सभासदों के साथ अन्य वार्तालाप करते हुए बैठे रहे । पश्चात् उन्होंने द्वारपाल को आज्ञा दी कि इसे प्रविष्ट करायो । शान्ति जिनेन्द्र से प्रेरित हुआ द्वारपाल उनके कहने के अनन्तर ही बड़े अादर से मागध देव को भीतर ले गया। शीघ्र ही दर्शन प्राप्त हो जाने से मागध देव हर्षित हो रहा था ।।१७२-७३।। जो प्रत्येक द्वार पर नमस्कार करके जा रहा था, सब ओर रत्नमयी वृष्टि ३ समीप १ सेनाक्रमणः २ सुरसिन्धोः इयं सौरसैन्धवी ताम् उभयपदवृद्धि। गङ्गासम्बन्धिनीम् ४ मागधदेवः ५ द्वारपालाय ६ शान्तिजिनेन्द्र स्तुतिपाठक इवा चरति । २७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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