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________________ २०८ श्रीशान्तिनाथपुराणम् विप्रलब्धा' मुहर्बाढं तत्संकल्पसमागमः । काचिन्न श्रद्दधे मुग्धा साक्षादप्यागतं प्रियम् ॥१५५।। किंवा मयि विरक्तोऽभूत्किं कयाचिद् बलाद्धृतः । किंवा जिज्ञासते पूर्तश्वेतोवृत्तिं ममाधुना ॥१५६।। अनायाति प्रिये काचिदिति हेतु वितन्वती । तं विलोक्य सकामापि ययौ निर्वृति मञ्जसा ॥१५७॥ (युग्मम्) करोति विप्रियं भूयो नमत्येव च तत्क्षणात् । पाहातुच मत्प्रीति तरलो यो न शक्नुयात् ॥१५८।। अव्यवस्थितचित्तेन तेन कार्य न मे सखि । मानिता कि सचित्ताभ्यां स्त्रीसाभ्यां न मानिता ॥१५॥ इति वाचं ब्र बाणान्या कान्ते तत्राप्युपागते । अन्यापदेशतोऽ'हासीदहासीन च धीरताम् ।।१६०।। अन्धोऽप्युद्देशमात्रेण भवानेतावती भुवम् । अगात्कथमपोत्येका गोत्रस्खलितमभ्यधात् ॥१६१।। प्रतिदूरं किमायाता केयं ते कांदिशीकता । न दवास्युत्तरं कस्मात्प्रत्ययस्थो मुनिव्रतम् ॥१६२।। एभिः सहचरञ् नमानीतोऽप्यन्यमानसः । परप्रार्थनया प्रेम यद्भवेत्तत्कियच्चिरम् ।।१६३॥ को लाने के लिए दूती को भेजकर भी स्वयं चल पड़ी सो ठीक ही है क्योंकि काम दुःख से सहन करने के योग्य होता है ।।१५४।। जो पति के द्वारा संकल्पित समागमों से बार बार अच्छी तरह ठगी गयी थी अर्थात् जिसका पति आश्वासन देकर भी नहीं आता था ऐसी कोई भली स्त्री साक्षात् आये हुए भी पति का विश्वास नहीं कर रही थी ।।१५५।। क्या वह मुझमें विरक्त हो गया है ? या किसी स्त्री ने उसे बलपूर्वक रोक लिया है ? अथवा वह धूर्त इस समय मेरी मनोवृत्ति को जानना चाहता है ? इस प्रकार पति के न आने पर जो कारण का विचार कर रही थी ऐसी कोई स्त्री पति को प्राया हुआ देख सकामाकाम सहित होने पर भी वास्तविक रूप से निवृत्ति-निर्वाण को प्राप्त हुई थी ( पक्ष में सुख को प्राप्त हई थी ) ॥१५६-१५७।। बार बार विरुद्ध प्राचरण करता है और तत्काल नमस्कार भी करने लगता है इस प्रकार जो इतना अस्थिर है कि न तो मेरी प्रीति को सुरक्षित रखने में समर्थ है और न छोड़ने में ही समर्थ है । हे सखि ! उस अव्यवस्थित चित्त वाले पति से मुझे कार्य नहीं है । क्या समनस्क स्त्री पुरुषों के द्वारा मानिता-मानवत्ता-मान से सहितपना मानिता स्वीकृत नहीं है ? अर्थात् स्वीकृत है। इस प्रकार के वचन कहने वाली कोई अन्य स्त्री पति के वहां आने पर भी अन्य के बहाने हँसने लगी थी परन्तु उसने धीरता को नहीं छोड़ा था ॥१५८-१६०।। . आप अन्धे होने पर भी उद्देश मात्र से किसी तरह इतनी भूमि तक--इतने दूर तक आये हैं ऐसा एक स्त्री ने नाम भूलकर कहा ॥१६१।। अधिक दूर कैसे आ गये? यह आपका भीरुपन क्या है ? उत्तर क्यों नहीं देते ? क्या मुनिव्रत-मौनव्रत ले रक्खा है ।।१६२।। आपका मन तो दूसरे की ओर लग रहा है, जान पड़ता है यहां आप इन मित्रों के द्वारा लाये गये हैं। जो प्रेम दूसरे की प्रार्थना से . १ प्रतारिता २ ज्ञातुमिच्छति ३ निर्वाणं पक्षे सुखम् ४ मानवत्ता ५ स्वीकृता ६ हास्यं चकार ७ न जहाति स्म 'ओहाक् त्यागे' इत्यस्य लुङिरूपम् ८ भीरुता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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