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________________ २०७ चतुर्दश. सर्गः निःशेषिताधिकारेण प्रसेदे श्वेतभानुना'। प्रभावात्प्रतिपक्षस्य सन्तो हि न विकुर्वते ॥१४८।। प्रोषधीनामधीशस्य कराग्रस्पर्शनात्ततः। प्रासनपेततिमिरा दिशस्तरलतारकाः ।।१४६॥ उदिते यामिनी नाथे चश्मे वारिराशिना। अन्ताक्षोभाय नो केषां भवेद्दोषाकरोदयः ॥१५०॥ करस्तमोपहैरिन्दोरबोधि कुमुदाकरः । अन्तराद्रो मुनेक्यियंथा भव्यजनः शुचिः ॥१५१॥ ततः प्रकाशयन्नाशा व्यलगद्वयोम 'सारसः । कामिनां च मनः सद्यो मदनो मानसारस ।।१५२॥ अपेक्ष्य शक्तिसामयं कुशला 'वारयोषितः : कामुकेष्वर्थसिद्धयर्थं वितेनुः सन्धिविग्रहौ ॥१५३।। दूतिकां कान्तमानेतु विसापि समुत्सुका । प्रतस्थे स्वयमप्येका दुःसहो हि मनोभवः' ॥१५४।। है उसी प्रकार चन्द्रमा के भय से भागने वाले लोकविरोधी अन्धकार को जब किसी ने शरण नहीं दी तब वह पर्वत की दुर्गम गुफाओं में रह कर अपना विपत्ति का समय व्यतीत करने लगा ॥१४७।। जिसने अन्धकार को समाप्त कर दिया था ऐसा चन्द्रमा प्रसन्न हो गया—पूर्णशुक्ल हो गया सो ठीक ही है क्योंकि शत्रु का अभाव हो जाने से सत्पुरुष क्रोध नहीं करते हैं । भावार्थ-अन्धकार रूप शत्रु के रहने से पहले चन्द्रमा क्रोध के कारण लाल था परन्तु जब अन्धकार नष्ट हो चुका तब वह क्रोधजन्य लालिमा से रहित होने के कारण शुक्ल हो गया ।।१४८।। तदनन्तर चन्द्रमा के हाथ के स्पर्श से ( पक्ष में किरणों के स्पर्श से जिनका वस्त्रतुल्य अन्धकार स्खलित हो गया है ऐसी दिशाए तरलतारका-अाँख की चञ्चल पुतलियों से सहित (पक्ष में चञ्चल ताराओं से सहित ) हो गयीं। भावार्थ--यहां स्त्रीलिङ्ग होने से दिशाओं में स्त्री का आरोप किया है जिसप्रकार पति के हाथ के स्पर्श से कामातुर स्त्रियों का वस्त्र स्खलित हो जाता है और उनके नेत्रों की पुतलियां चञ्चल हो जाती हैं उसी प्रकार चन्द्रमा का किरणों के स्पर्श से दिशाओं का अन्धकार रूप वस्त्र स्खलित हो गया और तारारूपी पुतलियां चञ्चल हो उठीं ॥१४६।। चन्द्रमा का उदय होने पर समुद्र क्षोभ को प्राप्त हो गया सो ठीक ही है क्योंकि दोषाकर-दोषों की खान (पक्ष में निशाकर-चन्द्रमा) का उदय किनके हार्दिक क्षोभ के लिए नहीं होता? ॥१५०।। अन्धकार को नष्ट करने वाली चन्द्रमा की किरणों से कुमुदाकरकुमुदों का समूह उस तरह बोध विकास को प्राप्त हो गया जिस तरह कि मुनिराज के अज्ञानापहारी वचनों से करुण हृदय वाला पवित्र भव्यसमूह बोध-ज्ञान को प्राप्त हो जाता है ।।१५१॥ तदनन्तर आशानों-दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ चन्द्रमा आकाश में संलग्न हो गयाआकाश के मध्य में जा पहुंचा और आशाओं-आकाङक्षाओं को प्रकाशित करता हुआ मानापहारी काम शीघ्र ही कामी पुरुषों के मन में संलग्न हो गया अर्थात् कामीजनों के मन काम से विह्वल हो गये ।।१५२।। चतुर वेश्याए शक्ति-सामर्थ्य की अपेक्षा कर कामीजनों में अर्थ की सिद्धि के लिये सन्धि और विग्रह का विस्तार करने लगीं । भावार्थ-चतुर वेश्याएं धन की प्राप्ति के लिए कुपित प्रेमियों से सन्धि और प्रसन्न प्रेमियों से विग्रह-विद्वष करने लगीं ।।१५३॥ कोई एक उत्कण्ठिता स्त्री पति १ चन्द्रमसा २ हस्ताग्रस्पर्शनात्, किरणाग्रस्पर्शनात् ३ अपेतं तिमिरं यासां ताः ४ चन्द्र ५ दोषखन्युदयः पक्षे चन्द्रोदय. ६ चन्द्र: 'सारसः पक्षिचन्द्रयोः' इति विश्वलोचनः ७गर्वापहारकः ८ वेश्याः कामः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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