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________________ २०६ श्री शान्तिनाथपुराणम् लोकानां मन्मथः कान्तो द्व ेष्योऽमूत्तिमिरोद्गमः । प्रविवेकविधायित्वं तुल्यमप्युभयोस्तवा || १४० ॥ मिथो विरोधिनों बिकाद्वियज्ज्योतिस्तमः स्थितिम् । महत्तां प्रथयामास लोकातीतामिवात्मनः ॥ १४१ ॥ अन्धकारस्य पर्यन्तं ज्ञातु चन्द्रेण योजिताः । 'नवसर्पा इव स्पष्टं प्रासर्पन्गगमे ग्रहाः । । १४२ ।। प्रथान्धतमसात्त्रातुं जगद्व ेगादिवेध्यतः । इन्दोः पादरजोभिः प्राक् प्राची दिग्धूसराभवत् ॥ १४३ ॥ विधो: कराड कुरं रेजे नियंद्भिरुदयाचल: । केतकीसूचिभि: क्लृप्तां मालामिव समुहहन् ।। १४४ ।। लक्ष्यत कला चान्द्री ततो "विद्र ुमलोहिनी । मनोभूकल्पवृक्षस्य प्रथमेवाङ कुरोद्गतिः ।। १४५ । । निगुह्य विजिगीषुत्वं को न शत्रु प्रतीहते । लोहितोऽभितमो भूत्वा धबलोऽप्युदगाद्विषुः || १४६ ॥ चन्द्रात्पलायमानस्य तमसो लोकविद्विषः । श्रपसारभुवो दुर्गा जाता गिरिगुहास्तदा || १४७॥ तो प्रिय था परन्तु अन्धकार का उद्गम अप्रिय था जब कि दोनों ही समान रूप से अविवेक को उत्पन्न करते हैं । भावार्थ - जिसप्रकार काम प्रविवेक को करता है अर्थात् हिताहित का विवेक नहीं रहने देता उसी प्रकार अन्धकार भी अविवेक करता है अर्थात् काले पीले छोटे बड़े आदि के भेद को नष्ट कर देता है सबको एक सदृश कर देता है इस तरह काम और अन्धकार में समानता होने पर भी लोगों को काम इष्ट था और अन्धकार का उद्गम अनिष्ट || १४० ।। उस समय परस्पर विरोध करने वाली ज्योति और अन्धकार की स्थिति को धारण करने वाला आकाश मानों अपनी लोकोत्तर महत्ता को ही प्रकट कर रहा था । भावार्थ - जिस प्रकार महान् पुरुष शत्रु और मित्र - सबको स्थान देता हुआ अपना बड़प्पन प्रकट करता है उसी प्रकार आकाश भी परस्पर विरोध करने वाली तारापंक्ति और अन्धकार दोनों को स्थान देता हुआ अपना सर्व श्रेष्ठ बड़प्पन प्रकट कर रहा था ।। १४१ ।। अन्धकार का अन्त जानने के लिए चन्द्रमा के द्वारा नियुक्त किए हुए गुप्तचरों के समान ग्रह आकाश में स्पष्ट रूप से फैल गये ।। १४२ ।। तदनन्तर गाढ अन्धकार से जगत् की रक्षा करने के लिए ही मानों वेग से जो चन्द्रमा आने वाला है उसकी चरण धूलि से पूर्व दिशा पहले ही धूसरित हो गयी ||१४३ || चन्द्रमा के निकलते हुए किरण रूपी अंकुरों से उदयाचल ऐसा सुशोभित हो रहा था मानों केतकी के अग्रभागों से निर्मित माला को ही धारण कर रहा हो ।। १४४ ।। तदनन्तर मूंगा के समान लाल लाल चन्द्रमा की कला दिखायी देने लगी जो ऐसी जान पड़ती थी मानों काम रूपी कल्प वृक्ष की प्रथम अंकुर की उत्पत्ति हो ।। १४५।। चन्द्रमा शुक्ल होने पर भी लाल होकर अन्धकार के सन्मुख उदित हुआ था सो ठीक हो है क्योंकि विजिगीषु भाव को छिपाकर शत्रु के प्रति कौन नहीं उद्यम करता है ? अर्थात् सभी करते हैं ।। १४६ ।। उस समय पर्वतों की दुर्गम गुफाएं चन्द्रमा से भागते हुए लोक विरोधी अन्धकार की अपसार भूमियां हुई थीं । भावार्थ- जिस प्रकार राजा के भय से भागने वाले लोक विरोधी शत्रु को जब कोई शरण नहीं देता है तब वह पर्वतों की गुफाओं में छिपकर अपने विपत्ति के दिन काटता ३ चरणधूलिभिः ४ चन्द्रस्येयं चान्द्री ५ विद्र ुम इव प्रवाल इव १ चरा इव २ नागमिष्यतः लोहिनी रक्तवर्णा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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