________________
चतुर्दशः सर्गः
२०५ 'पादसेवामनाप्यनी २तदैक: कमलाकरः। संचुकोच समासाद्य विचकासापरः पराम् ।।१३१॥ विश्यदृश्यत वारुण्यां संध्या, सौगन्धिका तिः। रक्तराजीवराजीव मार्गलग्ना विवस्वतः ।।१३२।। उत्थाय पाषण्डेभ्यः पेते भृङ्ग रितस्ततः। बीजरिवोप्यमानस्य कालेन तमसस्तदा ॥१३३।। विहृत्य स्वेच्छया क्वापि निविष्टदिवसक्रियः। प्रापिरे पुनरावासा जल्पाकैर्देशिकः खगैः ॥१३४॥ अपरार्णवकल्लोलशीकररूपातिभिः । प्रक्षालित इवाशेष: संध्यारागोऽगलत्क्षरणात ॥१३५।। भूमिपान्प्रापुरुत्क्षिप्तः प्रदीपैर्वीपिकाभृतः । मालाकाराश्च तत्काले शेखरचम्पकोज्ज्वलः ॥१६॥ शनैः सर्वात्मना रुद्धा दिशस्तास्वप्यमादिव । व्यज़म्भत तमः प्राप्य मानिनीमानसान्यपि ॥१३७।। मुखेभ्यो निर्गतदूरं बहिर्दीपप्रभोत्करः । उद्गिरन्त इवावासा रेजुरैरावती छ तिम् ॥१३॥ कामिभिः शुश्रुवे भीतैस्तमश्छन्नालिहुङ कृतिः। पततां कामबारणानां पक्षसूत्कारशङ्कया ॥१३॥
स्वामि सम्बन्धी) पाद सेवा-चरण सेवा (पक्ष में किरणों की सेवा) को न प्राप्त कर संकोचित हो गया था और दूसरा (कुमुद वन) अत्यधिक पाद सेवा चरण सेवा को प्राप्त कर विकसित हो गया था। भावार्थ-यहां इन का अर्थ सूर्य और स्वामी है तथा पाद का अर्थ किरण और चरण है । सायंकाल के समय सूर्य की किरणों को न पाकर कमल वन संकोचित हो गया था और कुमुद वन स्वामी के चरणों की सेवा प्राप्त कर अत्यन्त हर्षित हो गया था ।।१३१॥
पश्चिम दिशा में लाल लाल संध्या ऐसी दिखायी देती थी मानों सूर्य के मार्ग में लगी हुयी लाल कमलों की पंक्ति ही हो ।।१३२।। उस समय भौंरे कमल वन से उड़कर इधर उधर मंडराने लगे थे जिससे ऐसे जान पड़ते थे मानों काल के द्वारा बोये जाने वाले अन्धकार के बीज ही हों ॥१३३।। अपनी इच्छा से कहीं घूमकर दिन सम्बन्धी भोजनादि क्रिया को पूर्ण करने वाले तत्तद्देशीय पक्षी परस्पर वार्तालाप करते हुए अपने अपने निवास स्थानों को पुनः प्राप्त हो गये ।।१३४।। क्षण भर में संध्या की संपूर्ण लालिमा समाप्त हो गयी जिससे ऐसा जान पड़ता था मानों पश्चिम समुद्र की लहरों के जो छींटे ऊपर की ओर जा रहे थे उनसे धुल गयी हो ।।१३५।।
उस समय दीपिकाओं को धारण करने वाले मनुष्य ऊपर उठाये हुये दीपकों के साथ राजाओं के पास पहुंचे और मालाकार चम्पा के फूलों से उज्ज्वल सेहरों के साथ राजाओं के पास पहुंचे। भावार्थ-दीपक जलाने का काम करने वाले लोग दीपक ले लेकर राजाओं के पास पहुंचे और मालाकार चंपा के फूलों से निर्मित सेहरा लेकर उनके पास गये ॥१३६।। धीरे धीरे अन्धकार ने समस्त दिशाओं को रोक लिया और जब मानों उनमें भी नहीं समा सका तब वह मानवती स्त्रियों के मनों को भी प्राप्त कर विस्तृत हो गया ।।१३७॥ द्वारों से निकलकर दूर तक फैले हुए बाहय दीपकों की प्रभा समूह से डेरे ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानों ऐरावत हाथी की कान्ति को ही प्रकट कर रहे हों ॥१३८।। अन्धकार से आच्छादित भ्रमरों का जो हुकार हो रहा था उसे कामीजनों ने पड़ते हुए कामवाणों के पक्षों की सूत्कार की शङ्का से डरते डरते सुना था ।।१३९।। उस समय लोगों को काम
१ चरणसेवा किरणसेवां च २ इनस्य इयं ऐवी ताम् सूर्य सम्बन्धिनी ३ रक्तकमलपंक्तिरिय ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org