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________________ चतुर्दश: सर्ग: २१३ प्रखण्डविक्रमो गत्वा पूर्वखण्डं बलाधिपः । ' साधयित्वा न्यवतिष्ट वेगादश्रान्त सैनिकः || २०६ ॥ इति चक्रोपरोधेन विजित्य सकलां धराम् । कुरून्कुरूद्वहः प्रापत्प्रीत्या प्रोत्थापितध्वजान् ॥। २०७ ।। शार्दूलविक्रीडितम् स्वामी नः सकलां प्रसाध्य वसुधामायात इत्यादरादत्तार्घः सुमनीभवद्भिरभितः पौरंः पुराभ्युत्थितः । " राजेन्द्रो नगरं विवेश परया भूत्या सुरैरन्वितः प्रासादात्प्रमदाजनः समुदितरालोक्यमानोदयः ॥ २०८ ॥ मातुर्गर्भगतेन येन सकलं लोकत्रयं नामितं तस्येवं किती परापि नितरां साम्राज्य संपत्प्रभो ।। विज्ञायेति समग्रमव्य जनताभ्युद्धारकारी जन थोऽपि स मावि भिजन गुणैर्बन्वारुभिस्तुष्टुवे ॥ २०६ ॥ इत्यसगकृतो शान्तिपुराणे विग्विजयवरांनो नाम * चतुर्दशः सर्गः * थकने वाले सैनिकों से सहित सेनापति पूर्व खण्ड में गया और उसे वश कर शीघ्र ही लौट आया ।।२०६।। इस प्रकार चक्ररत्न के उपरोध से समस्त पृथिवी को जीतकर शान्ति जिनेन्द्र प्रीतिपूर्वक फहरायी हुई ध्वजाओं से युक्त कुरुदेश या पहुँचे ॥२०७॥ हमारे स्वामी समस्त पृथिवी को जीतकर आये हैं, इसलिये पहले से संमुख प्रा कर सब ओर खड़े हुए प्रसन्न चित्त नागरिक जनों ने जिन्हें अर्घ दिया था ऐसे राजाधिराज शान्ति जिनेन्द्र ने देवों सहित बड़ी विभूति के साथ नगर में प्रवेश किया। उस समय महलों पर एकत्रित हुई स्त्रियां उनके अभ्युदय को देख रही थीं || २०८ || जिन्होंने माता के गर्भ में आते ही समस्त तीनों लोकों को भूत किया था उन प्रभु के लिए इस प्रकार की यह चक्रवर्ती की संपदा अत्यन्त उत्कृष्ट होने पर भी कितनी है ? अर्थात् कुछ भी नहीं है ऐसा जानकर वन्दनाशील भव्यजनों ने समस्त भव्यजनों का उद्धार करने वाले उन शान्ति प्रभु की वर्तमान में छद्मस्थ होने पर भी आगे प्रकट होने वाले अरहन्त के गुणों की कल्पना कर स्तुति की थी || २०६ ।। इस प्रकार असंग महाकवि द्वारा विरचित शान्ति पुराण में दिग्विजय का वर्णन करने वाला चौदहवां सर्ग समाप्त हुआ || १४ || १ वशीकृत्य २ उन्नमितपताकान् ३ वशीकृत्य ४ शुचित्तं भवद्भिः ५ चक्रवर्ती शांति जिनेन्द्रः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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