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________________ २०२ श्री शान्तिनाथपुराणम् एता मन्दानिलोद्धतपल्लवाखलिभिताः । किरन्त्यः पुष्पधानार्थं भान्ति पोरस्त्रियो यथा ।। १०५ ॥ न्यायचिया 'सवाराद्विकसद्भिर्मुखाम्बुजैः । सर्वतो दृष्टुमायान्ति स्वामिमाः सुप्रजाः प्रजाः ।। १०६ ।। प्रभावात्प्रतिपक्षस्य शस्त्रे शास्त्रे च कौशलम् । प्रप्रयोगतया नूनं तदभिज्ञैर्विनिन्द्यते ॥ १०७॥ इदमन्यायनिर्मुक्तमन्यायसहितं परम् । तवामुना प्रयाणेन नाथ चित्रीयते जगत् ॥ १०८ ॥ अनवद्याङ्ग रागेण पदातयः । धनवद्याङ्ग रागेण प्रवीप्रा इव यान्त्यमी ॥१०६ ॥ समव्यायामयोर्योनिः षाड्गुण्यं यदुरीरितम् । नेतरि स्वयि भूपानां तदादावेव वर्तते ॥। ११० ।। प्रभूद्रत्नाकरान्भूमिः सर्वतोऽपि विवृण्वती । वसुन्धरा न नाम्नैव क्रिययापि वसुन्धरा ।। १११ ।। इत्यध्वन्यां" प्रकुर्वाणे वारणों चक्रायुषे प्रभुः । दृश्यमानो मुद्दा सैन्यैः सैन्यावासं समासदत् ॥। ११२ ।। अन्तरव निदेशस्यैवसृष्टानुगराजक: । स्वावासं प्राविशन्नाथो 'वासवावाससन्निभम् ।। ११३ ॥ राजमाना: अञ्जलियों के द्वारा पुष्प मिश्रित अर्ध को बिखेरती हुई ये लताएं लाई की वर्षा करने वाली नागरिक स्त्रियों के समान सुशोभित हो रही हैं ।। १०५ ।। न्याय के कथन करने की इच्छा से ही जो खिले हुए मुख कमलों से सहित हैं तथा जो उत्तम सन्तति से युक्त हैं ऐसे ये प्रजाजन सब ओर से आपका दर्शन करने के लिये दूर दूर से आ रहे हैं ॥ १०६ ॥ । प्रतिपक्ष - शत्रु का प्रभाव होने से जो शस्त्र विषयक कौशल प्रयोग से रहित होता है उसे उसके ज्ञाता मनुष्य अच्छा नहीं मानते । इसी प्रकार प्रतिपक्षशङ्का पक्ष का प्रभाव होने से जो शास्त्र विषयक कौशल हेतु प्रयोग से रहित होता है उसे वाद कलाके पारगामी पुरुष अच्छा नहीं मानते ।। १०७ ।। हे नाथ ! यह जगत् आपके इस प्रयाण से अन्याय निर्मुक्त होता हुआ भी अन्याय से सहित है यह आश्चर्य की बात है ( परिहार पक्ष में अन्य आयों से सहित है ) ||१०८ || हे अनवद्याङ्ग ! हे निर्मल शरीर के धारक ! शान्ति जिनेन्द्र ! राग-लाल रङ्ग के निर्दोष अङ्गराग - विलेपन से शोभायमान ये पैदल सैनिक देदीप्यमान होते हुए समान जा रहे हैं ।। १०६ ।। जो सन्धि विग्रह आदि छह गुणों का समूह योगक्षेम का कारण कहा गया है वह राजाओं के नेतास्वरूप प्राप में प्रारम्भ से ही वर्तमान है ।। ११० ।। सभी और रत्नों की खानों को प्रकट करने वाली वसुन्धरा - पृथिवी न केवल नाम से वसुन्धरा है किन्तु क्रिया से भी वसुन्धरा-धन को धारण करने वाली है ।। १११।। इस प्रकार जब चक्रायुध मार्ग - सम्बन्धी वाणी को प्रकट कर रहे थे तब सैनिकों द्वारा हर्ष पूर्वक देखे गये प्रभु सेना के पड़ाव को प्राप्त हुए ।। ११२ ।। प्राज्ञा में स्थित द्वारपालों के द्वारा जिनके अनुगामी राजाओं को बीच में ही विदा कर दिया गया था ऐसे शान्तिप्रभु ने इन्द्रभवन के तुल्य अपने निवासगृह में प्रवेश किया ।।१९३।। शान्ति जिनेन्द्र की सेना सुमेरु शिखर की शोभा को धारण कर रही थी क्योंकि जिसप्रकार सुमेरु शिखर कल्याणमय - सुवर्णमय होता है उसी प्रकार सेना भी कल्याणमय - मङ्गलमय थी, १ ख्यातुमिच्छा चिख्यासा ५ अध्वनि मार्गे भवा अध्वन्या ताम् Jain Education International २ अन्ये च ते आयाश्च अन्यायास्तैः सहितम् ३ पृथिवी ४ धनधारिणी ६ इन्द्रभवन सदृशम् । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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