________________
चतुर्दशः सर्गः
२०१ 'उद्दामदानलोभेन मत्तमातङ्गसंगतिम् । रूपाजीवेव भृङ्गाली करोत्येषा निरन्तरम् । ९६।। अमात्यैरिव नागेन्द्रर्वृतशिक्षः स्वनिग्रहः । परमेवननिष्णातैदिशो रुद्धाश्चकासति ॥१७॥ नेतृभिः प्रग्रहाभिः कृच्छ्रादिव वशीकृताः । 'प्राजानेयाः प्रवीराश्च वजन्त्येते मनस्विनः ।।६८॥ क्षीवः शून्यासनोऽप्येष पश्चान्मेष्ठ मुपागतम् । अवारोहयते हस्ती वदन्या 'तद्विधेयताम् ||६|| नो वधाति रजःक्षोभं यथेष्टं व्रजतामपि । स्यन्दनानामहो व्रज्या चिरायात्मवतामिव ।।१.०॥. निम्नगाः पूर्वभागेन भवन्त्येव सुनिम्नगाः। संन्योत्तरणरोधेन पश्चाद्धन प्रतीपगाः ॥१.१॥ निधिभिर्दोयमानार्न कश्चिविह दुर्गतः। प्रायान्ति नन्तुमेते स्वां नृपा निर्गत्य दुर्गतेः ॥१०२।। विजिगीषुस्त्वमेवैको यातव्यश्चासि भुजाम् । 'संगच्छते तथापीश भवत्येव नयज्ञता ॥१३॥ स्वपुष्पफलमारेण विनतास्तरुवीरुधः । प्रकाशयन्ति सर्वत्र सार्ग सर्वतु संपदम् ॥१०४।।
जिसप्रकार लक्ष्मी का क्रीडा कमल विकण्टक-कांटों से रहित होता है उसी प्रकार यह सेना भी विकण्टक-क्षुद्र शत्रुओं से रहित है ।।६।। यह भ्रमरों की पंक्ति वेश्या के समान उद्दामदान-बहुत भारी मद (पक्ष में बहुत भारी धन प्राप्ति ) के लोभ से निरन्तर मत्तमातङ्ग-मदोन्मत्त हाथियों (पक्ष में उन्मत्त चाण्डालों) की संगति करती है ।।१६।। मन्त्रियों के समान सुशिक्षित और स्वविग्रह-अपने शरीरों ( पक्ष में अपने द्वारा आयोजित युद्धों ) के द्वारा शत्रुओं के भेदन करने में ( शत्रुओं को फोड़ने में ) निपुण गजराजों के द्वारा रुकी हुई दिशाए सुशोभित हो रही हैं ।।६७।। लगाम के प्रयोग करने में कुशल ( पक्ष में वशीकरणक्रिया में चतुर ) नेताओं के द्वारा जो बड़ी कठिनाई से वश में किये गये हैं ऐसे ये तेजस्वी घोड़े और श्रेष्ठ योद्धा जा रहे हैं ।।१८।। यह उन्मत्त हाथी शून्यासन होकर भी पीछे से आये हुए महावत को उसकी अनुकूलता को कहते हुए के समान चढ़ा रहा है ।।९।। रथ यद्यपि इच्छानुसार चल रहे हैं तो भी चिरकाल के जितेन्द्रिय मनुष्यों की चाल के समान उनकी चाल रजःक्षोभ-धूलि के क्षोभ को ( पक्ष में पाप के क्षोभ को ) नहीं कर रही है ॥१००। नदियाँ पूर्वभाग से तो निम्नगा-नीचे की ओर ही बहने वाली हैं परन्तु सेना के उतरने सम्बन्धी रुकावट से पिछले भाग से उल्टी बहने लगी हैं । भावार्थ-नीचे की ओर जाने के कारण नदी का नाम निम्नगा है। उनका सेना उतरने के पूर्व पहले का जो भाग था वह तो नीचे की ही ओर जा रहा था परन्तु सेना उतरने के कारण ऊपर का प्रवाह रुक गया अत: वह ऊपर की ओर जाने लगा है ॥१०१।। निधियों के द्वारा दिये जाने वाले धन से यहां कोई दरिद्र नहीं रहा है ये राजा दरिद्रता से निकल कर आपको नमस्कार करने के लिये पा रहे हैं ॥१०॥हे नाथ ! यद्यपि एक आप ही विजिगीष राजा हैं तथा अन्य राजाओं के लिये एक आप ही यातव्य-प्राप्त करने योग्य हैं तथापि नीतिज्ञता एक आप में ही संगत हो रही है ।।१०३॥ हे सर्व हितकर्ता ! अपने पुष्प और फलों के भार से नम्रीभूत वृक्ष और लताएं सब ऋतुओं की संपत्ति को प्रकट कर रही हैं ।।१०४।। मन्द वायु से कम्पित पल्लव रूपी
-
१ अत्यधिकधनप्राप्तिलोभेन पक्षे प्रचुरमदजललोभेन २ मत्तगजराजसंगति पक्षे क्षीवचाण्डाल समागमम् ३ वेश्या इव ४ भ्रमरपंक्तिी ५ रश्मिप्रयोगकुशलः ६ उच्चस्तरीयाः अश्वाः ७ 'महावतिण्ठ' इति प्रसिद्धम्, ८ मेण्ठानुकूलताम् ६ गति: १० दरिद्रः ११ संगता भवति ।
२६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org