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________________ २०० श्रीशांतिनाथपुराणम् किमेतदिति संभ्रान्तर्मागधाम्याशवतिभिः । शङ्खानां शुश्रुवे घोषः पत्तिकोलाहलैः सह ॥१७॥ पूरिताखिललोकाशं संन्यमाशानिरोध्यपि। रुरुधे ध्वनिनाकान्तरोवोरन्ध्रमयाध्वनी ॥१८॥ प्रयाणमध्यभाजोऽपि छेका' इस मगद्विजाः । यत्रारण्या न वित्रेसुस्तत्र का वा विलोपिका ॥८॥ न च प्रबलपङ्कान्तनिमज्जदुर्बलोक्षकम् । नापि, .. संघट्टसमर्वादुल्लसद्दुर्दमौष्ट्रकम् ॥१०॥ उपद्गैरपि समासेदे नाध्वनीनः . परिश्रमः । अदृष्टपूर्वरामनाभरिभूतिविलोकनात् ॥११॥ (युगलम्) प्रयाणं चक्रिरणो द्रष्टुमतवोऽपि कुतूहलात् । समं जनपदैस्तस्थुरारुह्योपवनदुमान् ॥१२॥ सैन्यावगाहनेनापि चुक्षुमे न जलाशयः । तादृशस्योद्यमो मन हि क्षोभाय कस्यचित् ॥३॥ षडङ्गबलमालोक्य क्रान्ताम्बरमहीतलम् । इति भ्रात्रा' निजगदे "जगवेकपतिस्ततः ॥६॥ अनेक 'पत्रसंपत्ति नेत्रानन्दि विकण्टकम् । चक्रश चक्रमेतत्ते लक्ष्मीलीलाम्बुजायते ॥५॥ समीपवर्ती लोगों ने पैदल सैनिकों के कोलाहल के साथ शङ्खों का शब्द सुना ।।८७॥ आशानिरोधिदिशाओं को रोकने वाली (पक्ष में अभिलाषाओं को रोकने वाली) होकर भी जो पूरिताखिललोकाशसंपूर्ण लोक की दिशाओं को पूर्ण करने वाली ( पक्ष में सब लोगों की अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाली ) थी ऐसी उस सेना ने अपने शब्द के द्वारा आकाश और पृथिवी रूप दोनों मार्गों को रोक लिया था-व्याप्त कर लिया था ।।८८॥ जहां प्रयाण के बीच आये हुए जङ्गल के हरिण और पक्षी भी चतुर मनुष्यों के समान भयभीत नहीं हुए थे वहां भय की बात ही क्या थी ? ||८६।। उस सेना में न तो दुर्बल बैलों का समूह बहुत भारी कीचड़ के भीतर निमग्न हुआ था, न उद्दण्ड ऊंटों का समूह ही अत्यधिक भीड़ से उछला था और न पैदल सैनिकों ने भी शान्ति जिनेन्द्र की अदृष्ट पूर्व बहुत भारी विभूति के देखने से मार्गसम्बन्धी परिश्रम प्राप्त किया था ।।६०-६१।। चक्रवर्ती का प्रयाण देखने के लिये ऋतुएं भी कुतूहल वश देशवासी लोगों के साथ उपवन के वृक्षों पर आरूढ होकर स्थित हो गयीं थी ।।१२।। सैनिकों के अवगाहन-भीतर प्रवेश करने से भी जलाशय क्षोभ को प्राप्त नहीं हुए थे सो ठीक ही है क्योंकि उसप्रकार के प्रभु का उद्यम किसी के क्षोभ के लिये नहीं था ॥६३।। तदनन्तर आकाश और पृथिवीतल को व्याप्त करने वाली षडङ्गसेना को देख कर भाई चक्रायुध ने जगत् के अद्वितीय स्वामी शान्ति जिनेन्द्र से कहा ॥१४॥ हे चक्रपते ! आपकी यह सेना लक्ष्मी के क्रीडाकमल के समान आचरण कर रही है क्योंकि जिस प्रकार लक्ष्मी का क्रीडाकमल अनेक पत्र सम्पत्ति-अनेक दलों से युक्त होता है उसीप्रकार यह सेना भी अनेक वाहनों से युक्त है, जिस प्रकार लक्ष्मी का क्रीडाकमल नेत्रानन्दि नेत्रों को प्रानन्द देने वाला होता है उसीप्रकार यह सेना भी नेतृ+आनन्दि-नायकों को आनन्द देने वाली है और १ विदग्धा इव २ प्रचुरकर्दम मध्यनिमग्नीभवन्निर्बलवलीवर्दकम् ३ पदचारिभिः ४ चक्रायुधेन ५ शान्ति जिनेन्द्रः ६ अनेकवाहनयुक्तम्, अनेकदलसहितम् ७ नायकानन्दि नेत्तृन् आनन्दयतीति नेत्रानन्दि, पक्षे नेत्राणि नयनानि आनन्दयतीति तथाभूतं । ८ क्षुद्रशत्रु रहित पक्षे कण्टक रहित ९ सैन्यं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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