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________________ चतुर्दशः सर्गः १६९ दूरावन्दू निनादेन डिण्डिमध्वनिरोधिमा । क्षीवहास्तिकसंचारत्रासावपसरज्जने ॥७७॥ मनन्तरशे सेनानोनिवेशमवहेलया । कतुं कथमपि स्वैरं प्रकान्तन वसेवके ।।७।। यथेष्ट वाहनारूढ राजन्यैः सैन्यसंयुतः । प्रापूर्यमाणराजेन्द्र भवनद्वारपक्षके ॥७॥ सेनान्यः पुरतो गल्छहारत्नसमोकृते । प्रकृते पथि निर्व्याजं प्रयाणसमये जमैः ॥१०॥ लोकनापस्ततो बुद्धो बोधिषियोधनः । सम्मान्याशेषराजन्यान्यथोक्तप्रतिपतिभिः ॥१॥ जयपर्वतमारुह्य विजयाय दिशां ततः । प्रस्थानोचितमाकल्पं प्रतस्थे लीलया वहन् ॥२॥ चतुर्दशभिः कुलकम् भूभृतां मुकुटालोका बालामपि दिनधियम् । प्रवृद्धामिव तत्काले चक्रुराकान्तदिङ मुखाः ।।८३।। ततः प्रचलिते तस्मिाबका पुषपुषःसरे । चक्रायुधे तदा 'जज्ञे कृत्स्ना सैन्यमयीव भूः ॥४॥ प्ररोधि हरितां चक्रं हरिभिः'' १२शीघ्रपातिभिः । न पुनस्तत्खुरोत्खातपांसुभि वनोदरम् ।।८।। हास्तिकाडम्बरध्वानसम्मूर्च्छद्रयनिःस्वनः । व्यानशे हिमवत्कुक्षीनं पुनर्जनताश्रुतीः ।।८६॥ उन्मत्त हस्ति समूह के संचार के भय से लोग दूर भाग रहे थे, जब अन्तर को न जानने वाले नये सेवक सेनापति की आज्ञा को स्वेच्छावश अनादर से किसी तरह सम्पन्न करने के लिए तत्पर हो रहे थे, जब इच्छानुसार वाहनों पर बैठे हुए सेनाओं सहित राजकुमारों के द्वारा राजाधिराज शान्ति जिनेन्द्र के भवन सम्बन्धी द्वारों के दोनों ओर के प्रदेश व्याप्त हो रहे थे, और जब सेवकजन सेनापति के आगे चलने वाले दण्ड रत्न के द्वारा आगे का मार्ग निश्छल रूप से समान कर रहे थे ऐसा प्रस्थान का समय आने पर स्तुतिपाठक चारणों के जागरण-गीतों से जागे हुए त्रिलोकीनाथ शान्ति जिनेन्द्र ने यथायोग्य सत्कारों से राजाओं का सन्मान कर तथा जयपर्वत नामक हाथी पर सवार हो दिग्विजय के लिए प्रस्थान किया। उस समय वे प्रस्थान के योग्य वेष को लीला पूर्वक धारण कर रहे थे ॥६६-८२॥ उस समय यद्यपि दिन की लक्ष्मी बालरूप थी-प्रात कालीन थी तो भी दिशाओं के अग्रभाग को व्याप्त करने वाले राजाओं के मुकुटों के प्रकाश उसे मानों अत्यन्त वद्धिंगत कर रहे थे-मध्याह्न के समान सुविस्तृत कर रहे थे ॥८३।। तदनन्तर चक्रायुध नामक भाई जिनके आगे चल रहा था ऐसे चक्रायुध-चक्ररूप शस्त्र के धारक चक्रवर्ती शान्ति जिनेन्द्र के चलने पर समस्त पृथिवी सेना से तन्मय जैसी हो गयी ॥८४।। शीघ्रगामी घोड़ों के द्वारा न केवल दिशाओं का समूह भर गया था किन्तु उनकी टापों से खुदी हुई धूलि के द्वारा संसार का मध्यभाग भर गया था ।।८।। हस्तिसमूह के जोर दार शब्द से बढ़ते हुए रथों के शब्द ने न केवल जनसमूह के कानों को व्याप्त किया था किन्तु हिमवत् पर्वत की गुफाओं को भी व्याप्त कर लिया था ।।८६॥ यह क्या है ?' इस प्रकार घबड़ाये हुए मागधदेव के १ बन्धनशृङ्खला २ हस्तिसमूह ३ वैबोधिकः जागरण कार्य नियुक्तजनैः कृतानि विबोधनानि त। ४ वेषं ५ राज्ञाम् ६ चक्रायुधोनामभ्रातापुरस्सरोऽग्रगामी यस्य तस्मिन् ७ शान्तिजिनेन्द्र ८ जाता ९ दिशानां १० समूहः मण्डलमित्यर्थ: ११ अश्वः १२ शीघ्रगामुकैः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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