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________________ श्री शान्तिनाथपुराणम् 1 'निशायामत्रयेऽतीते प्रयाणकोशसंख्यया । दध्वान वैभवी' मेरी सेनान्यादेततस्ततः ।। ६६ ।। शिबिरं युगपत्सर्वं तस्या ध्वनिरबोधयत् । श्रकरोत्सोत्सवोत्साहं तिरश्चामपि मानसम् ।। ६७ ।। शङ्खकाहलतूर्याणि स्वस्वचिह्नान्वितान्यलम् । नेदुरसालतालानि मूक्षितामुपतोरणम् ॥ ६८ ॥ प्रयाण परिहृष्टस्य कटकस्य महीयसि । क्रमात्कलकले विश्वं व्यश्नुवाने निरन्तरम् ||६६॥ प्रनाहूतागतानेक कामं प्रारब्धकर्मरिण श्रनुष्ठाना कुलीभूतभवनव्यवहारिणि ॥७०॥ दूरं निरस्यमानेऽथ तत्काले का किरणी त्विषा । प्रत्यावासं बहिर्व्वान्ते नीलकाण्डपटे यथा ॥ ७१ ॥ भूमेरुतकील्यमानेभ्यः स्थूलेभ्यो ग्वीवधोद्वहैः । निः कास्यमानपेटाभिः पीड्यमाननृपाजिरे ।।७२ ॥ ॥ htfunny freeकण्ठालेः कण्ठलम्ब्रिभिः । उत्प्लुत्योत्प्लुत्य सर्वत्र धावमान क्रमेलके ॥७३॥ सौन्दर्य विभवोत्सेकाद्धृतमूरिप्रसाधनैः 1 साधनैरिव "पुष्पेषविहारैरभिनन्दिते ||७४ | पुर: प्रस्थाप्यमानानश्चक्रच क्रोरुचीत्कृतः प्रभुतान्योन्यसंवादाद्विसंवाहित घूर्तते ॥७५॥ प्रातिवेशिकैः । संवाह्यमनवारस्त्रीशयनादिपरिच्छदे ||७६ || I १६८ "तुदीप्रियतालापात्सहामैः तत्पश्चात् प्रस्थान के कोशों की संख्या से जब रात्रि के तीन पहर व्यतीत हो गये तब सेनापति की आज्ञा से भगवान् की भेरी शब्द करने लगी ।। ६६ ।। उस भेरी के शब्द ने एक साथ समस्त शिविर को जागृत कर दिया और तिर्यञ्चों के भी मन को उत्सव तथा उत्साह से भर दिया ।। ६७ ।। तोरण के समीप राजाओं के अपने अपने चिह्नों से सहित, जोरदार शब्द करने वाले शङ्ख काहल और तुरही अत्यधिक शब्द करने लगे ।। ६८ ।। प्रयाण से हर्षित सेना का बहुत भारी कल कल शब्द जब क्रम से निरन्तर विश्व को व्याप्त कर रहा था, बिना बुलाये आये हुए अनेक सेवकों ने जब कार्य प्रारम्भ कर दिया था, जब भवन के व्यवस्थापक लोग अनुष्ठानों कार्यकलापों से व्यग्र हो रहे थे, जब प्रत्येक डेरे का बाह्य अन्धकार नीले रङ्ग के परदे के समान काकिणी रत्न की कान्ति के द्वारा तत्काल दूर किया जा रहा था, भूमि से ऊपर उठाये जाने वाले बड़े ढेरों से कहारों द्वारा निकाली जाने वाली पेटियों से जब राज मन्दिर का प्रांगन संकीर्ण हो रहा था, गले में लटकने वाले वाद्य विशेष, धोंकनी प्रादि तथा कण्ठालों (? ) से जब ऊंट ऊंचे उछल उछल कर सर्वत्र दौड़ रहे थे, सौन्दर्य रूप सम्पदा के गर्व से जिन्होंने बहुत भारी आभूषण धारण किये थे तथा जो कामदेव के साधन के समान जान पड़ती थी ऐसी वेश्याओं के समूह से जिसका अभिनन्दन किया जा रहा था, आगे चलाये जाने वाली गाड़ियों के पहियों के समूह की बहुत भारी चित्कार से परस्पर का वार्तालाप न सुन सकने से जब भार वाहक लोग विसंवाद को प्राप्त हो रहे थे, जब बड़ी थोंद वाले मनुष्यों के सैकड़ों वार्तालापों से हँसने वाले पड़ौसी लोग वेश्याओं के शयन आदि उपकरणों को ले जा रहे थे, जब नगाड़ों के शब्द को रोकने वाले शृङ्खला के शब्द से १ रात्रिप्रहरत्त्रये २ विभोरियं वैभवी ३ कर्मकर ४ उभयतो बद्धशिक्ये स्कन्धवाह्य काष्ठ विशेषे विवध ववध शब्दौ निपात्येते । वीवधं उद्वहन्ति वीवधोद्वहास्तैः । ५ मदनस्य ६ प्रस्थाप्यमानानाम् अनसां शकटानां यानि चक्राणि रथाङ्गानि तेषां चक्रस्य समूहस्य यानि उरुचीत्कृतानि तैः ७ तुन्दी प्रिया । स्थूलोदरा जनाः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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