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चतुर्दशः सर्गः
१९७ तथापि चक्रिणामेष कमो दिग्विजयादिकः। त्वया विधीयतामस्य चक्रस्यैवोपरोषतः ॥५६॥ इति विज्ञाप्य 'लोकेशं तदनुमामवाच्य तो। मेरी दिग्विजयायोच्चस्ताडयामासतुस्ततः ॥५७॥ भूयमाणो ध्वनिस्तस्याः पट्खण्डं व्यानशे समम्। यत्र यत्र स्थितैलॊकस्तत्र तत्र भवो यथा ॥५८।। बारणेन्द्रमवारह्म पुराच्चकपुरःसरः । निर्गस्योपबने प्राच्या प्रस्थानमकरोत्प्रभुः ॥५६॥ रत्नदास्मयं सौषं स तत्र मयनिमितम्। पावसन्मान्यराजन्यसैन्यावासपरिष्कृतम् ॥६०॥ तत्रास्थानगतः शृण्वन् वृद्ध भ्यः पूर्वचक्रिणाम्। कथां प्राकृतवनेमे धोरस्त्रिमानवानपि ॥६॥ बासरस्यावसानेच बाह्यास्थानी बयोचितम् । सम्मान्य "राजकं मुक्त्वा विवेशाभ्यन्तरी सभाम् ॥६२॥ तस्यां पूर्वस्थितामात्यसेनाल्यादिभिराचरात् । बारात्प्रत्युद्गतो भेजे सिंहः सिंहविष्टरम् ॥६३।। अपि रत्नानि ते तेन स्वयमाजमितीरिताः । रत्नीभूतमिवात्मानं तत्काले बहुमेनिरे ॥६४॥ प्रस्तुतोचितमालप्य चिराविव बिसळ तान् । वासगेहममान्नाथः प्रविगाढे तमीमुखे ॥६५॥
लिये यह साम्राज्य प्रानुषङ्गिक अर्थात् गौरण है यह बालक भी समझता है। भावार्थ- इस साधारण चक्ररत्न से आपकी महिमा नहीं है क्योंकि आप उस धर्म चक्र के नेता हैं जिसका प्रभाव षट् खण्ड में ही नहीं तीनों लोकों में भी अस्खलित है। यह साम्राज्य आपके लिए प्रानुषङ्गिक-अनायास प्राप्त होने वाला गौण है। यह बालक भी जानता है ॥५५॥ फिर भी इस चक्ररत्न के उपरोध से ही आपके चक्रवर्तियों का क्रम जो दिग्विजय आदि है वह करना चाहिये ।।५६।।
इस प्रकार शान्ति जिनेन्द्र से निवेदन कर तथा उनकी आज्ञा प्राप्त कर मन्त्री और सेनापति ने दिग्विजय के लिए जोर से भेरी बजवा दी ।।५७।। भेरी का शब्द छह खण्डों में एक साथ व्याप्त हो गया। वह शब्द जहां जहां स्थित लोगों के द्वारा सुना गया था वहां वहां उत्पन्न हुआ सा सुना गया था ॥५८।। तदनन्तर जिनके आगे आगे चक्र चल रहा था ऐसे प्रभु ने गजराज पर आरूढ हो नगर से निकल कर पूर्व दिशा के उपवन में प्रस्थान किया ॥५६।। वहां उन्होंने माननीय राजाओं तथा सेना के निवास से सुशोभित, मय के द्वारा निर्मित रत्न और लकड़ी से बने हुए महल में निवास किया ॥६०। वहां सभा में बैठे हुए धीर वीर भगवान् यद्यपि तीन ज्ञान के धारक थे तो भी वृद्धजनों से पूर्व चक्रवतियों की कथा को सुनते हुए साधारण जन के समान प्रानन्द लेते रहे ॥६१॥ .
तदनन्तर दिन समाप्त होने पर राजाओं का यथा योग्य सन्मान कर वे बाह्य सभा को छोड़ अभ्यन्तर सभा में प्रविष्ट हए ॥६२॥ वहां पहले से बैठे हुए मन्त्री और सेनापति आदि के द्वारा प्रादर पूर्वक दूर से ही जिनकी अगवानी की गयी थी ऐसे नरोत्तम-शान्ति जिनेन्द्र सिंहासन पर बैठे ॥६३।। 'आप लोग बैठिए' इस प्रकार भगवान् ने जिनसे स्वयं कहा था उन मन्त्री तथा सेनापति आदि रत्नों ने उस समय अपने आपको रत्न जैसा ही बहुत माना था ।।६४।। तदनन्तर प्रकरण के अनुरूप वार्तालाप कर तथा चिरकाल बाद उन्हें विदा कर रात्रि का प्रारम्भ भाग सघन होने पर भगवान् निवास गृह में गये ॥६॥
४ बाह्यसभायाम्
५ राजसमूहं ६ नृश्रेष्ठः
१शान्तिजिनेन्द्र २ व्याप ३ साधारणजन इव शान्तिजिनेन्द्रः ७ सिंहासनम् ८ रजनीमुखे ।
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