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श्रीशान्तिनाथपुराणम् स्थपतिः कर्मशालायां सर्वशिल्पमयो मयः। अनिगुह्यात्ममाहात्म्यमाविष्ट सह गुह्यकः ॥४४॥ अन्तर्लोनसहनाक्षिभुजव्यापारराजितः । सन्निधाता कुतोऽप्येत्य कोलगेहे प्रकाशते ।।४।। मन्त्री दीप इवादीपि मन्त्रशालामधिष्ठितः। हिताय सर्वतस्वानां त्वबोध इव मूर्तिमान् ॥४६॥ इति रत्नानि भूलोके दुर्लभानि चतुर्दश। नवििनधिभिः सार्धमभूवम्भुवनेश्वर ॥४७॥ एवमुक्तवतस्तस्य पुरापूर्य मनोरथान् । चक्रायुधेन लोकेशः पश्चाच्चक्रमपूपुजत ॥४८॥ तस्यानुपदमागत्य ततश्चक्रं जगत्पतिम् । त्रि:परीत्य ननामाराद्रलेश्व निधिभिः समम् ।।४।। ततो जयजयेत्युच्चेर्वदन्तो विस्मयाकुलाः । प्रादुरासन्सुरा ध्योम्नि लीलानमितमौलयः॥५०॥ सर्वे चकमृताच मति महयन्ति च। एतदेव महच्चित्रं तदेवनं नमस्पति ॥५१॥ लक्ष्मीः कापि बसत्यस्मिन्सर्वलोकातिशायिनी। मरुतः केचिदित्यूचुः परितस्तत्समान्तरम् ॥५२॥ प्रणम्य मन्त्रिसेनान्यौ किरीटघटिताखली। तो व्यजिशपतामित्थं तत्कालोचितमीश्वरम् ॥५३॥ चत्वारश्चक्रिरणोऽतीता भरते भरतादया। कृच्छ्रादिव वशं कृत्स्नं सति चक्रेऽपि चकिरे ॥५४॥ नेतुस्ते धर्मचक्रस्य त्रैलोक्यास्खलितायतेः । वेद बालोऽपि साम्राज्यमिदमित्यानुषङ्गिकम् ॥५॥
ऐसा मय नामका स्थपति अपने माहात्म्य को न छिपाता हुअा गुह्यकों-देवविशेषों (सहायकों) के साथ कर्म शाला में बैठा है ॥४४॥ जो भीतर छिपे हए हजार नेत्र तथा हजार भुजाओं के व्यापार से सुशोभित है ऐसा कोषाध्यक्ष कहीं से आ कर कोषगृह में प्रकाशित हो रहा है ।।४५।। जो आपके मूर्तिमान् ज्ञान के समान जान पड़ता है ऐसा मन्त्री सब जीवों के हित के लिये मन्त्र शाला में बैठा हुआ दीपक के समान देदीप्यमान हो रहा है ।।४६।। इसप्रकार हे जगत्पते ! पृथिवी लोक में दुर्लभ चौदहरत्न नौ निधियों के साथ प्रकट हए हैं ॥४७॥ इस प्रकार कहने वाले प्रायुधाध्यक्ष के मनोर पहले पूर्ण कर-उसे इच्छित पुरस्कार देकर पश्चात् शान्ति जिनेन्द्र ने चक्रायुध के साथ चक्ररत्न की पूजा की ॥४८।। तदनन्तर उनके पीछे आ कर चक्र ने रत्नों और निधियों के साथ तीन प्रदक्षिणाएं दे कर जगत्पति-शान्तिनाथ जिनेन्द्र को समीप से नमस्कार किया ॥४६॥
तदनन्तर जो उच्च स्वर से जय जय शब्द का उच्चारण कर रहे थे, आश्चर्य से परिपूर्ण थे और जिनके मस्तक लीला से-अनायास ही नम्रीभूत थे ऐसे देव आकाश में प्रकट हुए।।५०।। सब चक्रवर्ती चक्ररत्न को नमस्कार करते हैं तथा पूजते हैं परन्तु यही बड़ा आश्चर्य था कि वह चक्ररत्न ही शान्ति जिनेन्द्र को नमस्कार करता है ।।५१।। इन शान्ति जिनेन्द्र में समस्त लोक से बढ़कर कोई अनिर्वचनीय लक्ष्मी निवास करती है ऐसा कितने ही देव सभा के भीतर चारों ओर कह रहे थे ।।५२।। जिन्होंने हाथ जोड़कर मस्तक से लगा रक्खे थे ऐसे मन्त्री और सेनापति ने प्रणाम कर शान्तिनाथ जिनेन्द्र से उस समय के योग्य इस प्रकार निवेदन किया ॥५३।। इस भरत क्षेत्र में भरत आदि चार चक्रवर्ती हो चुके हैं उन्होंने चक्र के रहते हुए भी कठिनाई से ही मानों सब को वश में किया था ॥५४॥ परन्तु आप तो जिसका पुण्य प्रभाव तीनों लोकों में अस्खलित है ऐसे धर्म चक्र के नेता हैं। आपके
१ चक्ररत्नमेव, २ चक्रवर्तिनम् , ३ देवाः।
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