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________________ १६५ इवायतः ॥३४॥ निरर्थकम् ||३५|| तथाप्याविरद्दण्डश्चित्ररत्नमयः स्वयम् ||३६| त्वद्गन्धस्पद्धं येवाशाः सुगन्धयदथाखिलाः । प्रजनि प्रसपि संहारि चर्म भमंप्रभं प्रभो ।। ३७ ।। उदगreerful रत्नं प्रत्यग्रार्ककरोपमैः । द्यामभी 'बुभिरालोकैः प्रावृण्यदिव पल्लवैः ||३८|| यो लोक मूषरणस्यापि भूषणं ते भविष्यति । तस्य चूडामणैर्देव माहात्म्यं केन वयंते ॥३६॥ सर्व कमनीयाङ्ग प्रकामफलदायिनी । ज्ञानीता व्योमर्गः कन्या कापि कल्पलतेव ते ||४०|| कामगः कामरूपी च प्रहितो व्यन्तरेशिना । सुमेरुरिव संचारी द्विरदो द्वारि वर्तते ।।४१।। प्रनन्यजरयोपेतस्तुरग कार्मुको यथा । चतुरस्रः सुरैर्न्यस्तस्तव वासगृहाजिरे ॥ ४२॥ विक्रमेणाधरीकुर्वन् प्रोतुङ्गानपि भूभृतः । afree इवागत्य सहसा भूच्चमूपतिः ॥४३॥ प्रसिरिन्दीवरश्यामः चतुर्दशः सर्गः पद्मरागमयत्सरुः । मन्ये निःशेषिताशेषजनतापस्य ते प्रभोः । सत्पथे वर्तमानासु सकलासु प्रजास्वपि । १ किरणः २ विद्याधरः । Jain Education International प्रजनिष्टाधिवाला कं प्रभावीवातपत्रेण भी ( पक्ष में युद्ध को दूर करने वाला होकर भी ) प्रत्यक्ष सुशोभित होता है ||३३|| जिसकी मूठ पद्मरागमणि की है ऐसा नील कमल के समान श्याम वर्ण वाला खड्ग भी उत्पन्न हुआ है । वह खड्ग बालसूर्य - प्रातः कालीन सूर्य से सहित जल में प्राये हुए मच्छ के समान जान पड़ता है ||३४|| एक देवोपनीत छत्र भी प्रकट हुआ है परन्तु समस्त जगत् के संताप को दूर करने वाले आपके लिये वह दिव्य छत्र भी निरर्थक है ऐसा मानता हूं ।। ३५ ।। यद्यपि समस्त प्रजा समीचीन मार्ग में वर्तमान है तथापि नाना प्रकार के रत्नों से तन्मय दण्ड स्वयं प्रकट हुआ है || ३६ || हे नाथ ! जो आपकी गन्ध से स्पर्द्धा होने के कारण ही मानों समस्त दिशाओं को सुगन्धित कर रहा है तथा संकोचित और विस्तृत होना जिसका स्वभाव है ऐसा सुवर्ण के समान प्रभावाला चर्म रत्न उत्पन्न हुआ है ।। ३७ ।। जो बाल सूर्य की किरणों के समान प्रकाशमान किरणों के द्वारा प्रकाश को लाल लाल पल्लवों से आच्छादित करता हुआ सा जान पड़ता है ऐसा काकिरणी रत्न प्रकट हुआ है ।। ३८ ।। हे देव ! जो लोक के आभूषरण स्वरूप आपका भी आभूषण होगा उस चूडामरिण की महिमा किसके द्वारा कही जा सकती है ?. ।। ३६ ।। जिसका शरीर सब ऋतुओं में सुन्दर है, तथा जो प्रकामफल दायिनी - प्रकृष्ट काम रूपी फल को देने वाली है ( पक्ष में इच्छित फल को देने वाली है ) ऐसी कल्पलता के समान कोई अनिर्वचनीय कन्या विद्याधरों के द्वारा आपके लिये लायी गयी है ||४०|| जो इच्छानुसार गमन करता है, इच्छानुसार रूप धारण करता है, व्यन्तरेन्द्र के द्वारा भेजा गया है और चलते फिरते सुमेरु पर्वत के समान जान पड़ता है ऐसा हाथी - गजरत्न द्वार पर विद्यमान है || ४१ ।। जो धनुष के समान अन्यत्र न पाये जाने वाले वेग से सहित है तथा सुडौल है ऐसा घोड़ा देवों ने आपके निवास गृह के प्रांगन में खड़ा कर दिया है || ४२ || जो विक्रम - पराक्रम ( पक्ष में ऊंची छलांग) के द्वारा प्रोत्तङ्ग - श्रेष्ठ (पक्ष में ऊंचे) भूभृतों - राजाओं ( पक्ष में पर्वतों ) को भी नीचे कर रहा है ऐसा सिंह के समान कोई सेनापति सहसा आ कर उपस्थित हुआ है ||४३|| जो समस्त शिल्पों से तन्मय है जलं मरस्य दिव्येनापि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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