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________________ चतुर्दशः सर्गः २०३ 'कल्याणमयमत्युद्ध महाभागः समन्वितम् । बभार कटकं भर्तुः सुमेरो: "कटकश्रियम् ॥११४॥ स्वामिभृत्यादिसंबन्धमाश्रित्यान्येव भोगमः। तत्सैन्यवसती रेजे भूरिरामकभूतिभिः ।।११५॥ ख्यातं 'वसुभिरष्टाभिरमेयवसुसम्पदा । अषाचकार या स्वर्गमुपरिष्टादपि स्थितम् ॥११६।। ख्यात पुण्यजनाधारा 'राजराजान्विताप्यलम् । प्रलकामहसत्कान्त्या 'बात्रिमैनिधिभिर्युता ॥११७।। सा षण्णवतिगम्यूतिप्रमाणापि समन्ततः । अनन्त' भोगिसम्बन्धान्नागलोकस्थिति दधौ ॥११८।। विबुधैरपि विस्मित्य वीक्ष्यमाणा समन्ततः । "ग्रामेय. कौतुकादेत्य 'न्याधायीत्यत्र का कथा ॥११॥ स्फुरन्मरकतच्छायावन्तुरीभूतशाड्वलाः । पुष्पद्रुमलताकीर्णविविक्तपरिषवला: ॥१२०॥ उपशल्यभुवस्तस्या मनोमू जन्मभूमयः । प्रभूवन्पर्यभावोव तत्कान्त्या भोगभूमयः ॥१२॥ सर्वतः सौधसान्निध्यात्पुरा साङ्केतिकैर्ध्वजः। सेनाचरैनिजावासास्तत्र कृच्छ्रात्प्रतीयिरे ॥१२२।। जिसप्रकार सुमेरु शिखर अत्युद्ध-अत्यन्त प्रशस्त होता है उसीप्रकार सेना भी अतिशयप्रशस्त थी, और सुमेरु शिखर जिस प्रकार महाभाग-देव विद्याधर आदि महा पुरुषों से सहित होता है उसी प्रकार सेना भी उत्कृष्ट महानुभावों से सहित थी ॥११४॥ उनकी सेना की निवास भूमि, बहुत भारी राजाओं की विभूति से ऐसी सुशोभित हो रही थी मानों स्वामी और सेवक के सम्बन्ध का आश्रय कर होने वाली दूसरी भोग भूमि ही हो ॥११॥ जिसने अपरिमित धन सम्पदा के द्वारा आठ वसुओं से प्रसिद्ध तथा ऊपर स्थित स्वर्ग को भी अधःकृत नीचा कर दिया था ॥११६।। दानशील निधियों से सहित जो वसति यद्यपि ख्यातपुण्य जनाधारा–प्रसिद्ध यक्षों के आधार से प्रसिद्ध थी ( पक्ष्यमें प्रसिद्ध पुण्य शाली जीवों के आधार से प्रसिद्ध थी ) तथा राजराज–कुवेर ( पक्ष में चक्रवर्ती ) से सहित थी तो भी वह कान्ति से अलकापुरी की अच्छी तरह हँसी करती थी ॥११७॥ वह सब ओर से यद्यपि छियानवे कोश विस्तृत थी तो भी अनन्तभोगी-शेषनाग के सम्बन्ध से ( पक्ष में बहुत अधिक भोगीजनों के संबंध से ) नाग लोक पाताल लोक की स्थिति को धारण कर रही थी ।।११८।। उस निवास भूमि को देव भी आश्चर्यचकित होकर चारों ओर से देखते थे फिर ग्रामीण लोग कौतुक से आकर देखते थे इसकी कथा ही क्या है ? ॥११६।। देदीप्यमान मरकत मणियों की कान्ति से जहां हरे हरे घास के मैदान नतोन्नत हो रहे थे तथा जहां की एकान्त अथवा पवित्र भूमियां पुष्पित वृक्षों और लताओं से व्याप्त थीं ऐसी उसकी समीपवर्ती भूमियां काम की जन्म भूमियां बन रहीं थी अथवा उसकी कान्ति से मानों भोग भमियां तिरस्कृत हो रही थीं ॥१२०-१२।। वहां राजभवन के चारों ओर पहले से जो सांकेतिक ध्वजाएं लगायीं गयीं थीं उनके द्वारा ही सैनिक लोग बड़ी कठिनाई से अपने अपने डेरों की ओर जा रहे थे ।।१२२॥ जिनका हृदय परोपकार में लीन १ श्रेयोमयं सुवर्णमयं च २ अतिप्रशस्तं ३ सैन्यं ४ शिखरशोमाम् ५ स्वर्गः अष्टाभिः वसुभिः ख्यातः, सैन्यवसतिस्तु अपरिमेयवसुसम्पदा-धनसंपत्या ख्याता ६ ख्यातः प्रसिद्धः पुण्यजनानां पुण्यशालिजनामां पक्षे यक्षाणा माधारो यस्यां सा राजराजेन चक्रवतिना पक्षे धनाधिपेन अन्विता सहिता दानशीलः अनन्तश्चासौ भोगीच अनन्त भोगी-शेषनागस्तस्य संबन्धात् पक्षे अनन्ता: अपरिमिता ये भोगिनो भोगयुक्ताः तेषां सम्बन्धात १० ग्रामीण जनैः ११ अवलोकिता। १२ कामोत्पत्ति भूमय: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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