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________________ त्रयोदशः सर्गः १८६ निषिद्धाशेषगीर्वाणास्तमादाय सुरेश्वराः। निन्यिरेऽभ्यन्तरं नाथं महीनायपुरःसराः ।।१९।। माया कापनयने किञ्चिद्वयाकुलचेतसः । ऐरायास्तं पुरो देवं प्रतिष्ठाप्येति तेऽभ्यधुः ॥१६६।। सुतापहरणादातिर्माभूदिति तवापरम् । मायामयं निधायाने नीतो मेरुमयं जिनः ।।२००॥ अभिषिच्य ततोऽस्माभिरानीतः शान्तिराल्यया। प्रात्ममूरपि ते पुत्रः क्रमोऽयं जिनजन्मनः ॥२०॥ इत्युक्त्वा तेऽथ निर्गत्य जिनजन्मालयात्तत: । सुरेन्द्राः स्वपदं जग्मुः प्रनृत्य प्रमदाच्चिरम् ।।२०२।। निकाये नाकिनां वेगाद्गतवत्यपि तत्पुरम् । न जही सुरलोकश्रीस्तत्पुरेणेव लोभिता ॥२०३॥ शार्दूलविक्रीडितम् किं मन्त्राक्षरमालया त्रिजगतां त्रातुनिजेनौजसा बालादित्यसमद्य तेः किमप। कृत्यं प्रदीपः पुरः । किंवा यामिकमण्डलेन महता साध्यं प्रबुद्धात्ममो रक्षां तस्य तथाप्यहो शिशुरिति व्यर्थी पुरोधा व्यधात् ॥२०४॥ से सात कक्षाएं पार कर प्रभु की अगवानी की ॥१६७।। जिन्होंने समस्त देवों को मना कर दिया था और राजा विश्वसेन जिनके आगे चल रहे थे ऐसे इन्द्र-भगवान् को भीतर ले गये ॥१६८।। मायामय बालक के दूर करने पर जिनका चित्त कुछ व्याकुल हुआ था ऐसी ऐरा देवी के आगे उस जिन बालक को प्रतिष्ठित कर इन्द्रों ने इसप्रकार कहा ॥१९६॥ पुत्र के ले जाने से दुःख न हो इसलिये आपके आगे मायामय दूसरा पुत्र रख कर यह जिनराज मेरु पर्वत पर ले जाये गये थे ॥२००॥ अभिषेक कर वहां से वापिस ले आये हैं, आपके पुत्र का नाम शांति है, तीर्थंकर के जन्म का यह क्रम है ।।२०१।। तदनंतर यह कह कर इन्द्र जिनेन्द्र भगवान् के जन्मगृह से बाहर आये और चिरकाल तक हर्ष से श्रेष्ठ नृत्य कर अपने स्थान पर चले गये ॥२०२।। यद्यपि देवों का समूह वेग से चला गया था तो भी स्वर्गलोक की शोभा ने उस नगर को नहीं छोड़ा, मानों वह उस नगर के द्वारा लुभा ली गयी थी ।।२०३।। अपने प्रताप से तीनों जगत् की रक्षा करने वाले शान्ति जिनेन्द्र को मन्त्र सम्बन्धी अक्षरों की पंक्ति से क्या प्रयोजन था ? बाल सूर्य के समान कान्ति वाले उन शान्ति जिनेन्द्र को आगे रखे गये अन्य दीपों से क्या प्रयोजन था ? तथा स्वयं प्रबुद्धात्मा से युक्त उन शान्ति जिनेन्द्र को बहुत बड़े पहरेदारों के समूह से क्या साध्य था ? फिर भी पुरोहित ने 'यह शिशु है' यह समझकर उनकी व्यर्थ ही रक्षा की थी यह आश्चर्य है ।।२०४॥ जिसमें अभी दन्त रूपी केशर प्रकट नहीं हुई थी। ऐसे - १ निजगदुः २ प्रहरिकसमूहेन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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