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________________ १८८ भीशांतिनाथपुराणम् 'वितानतलवतिन्यो दिव्यातोद्य रनुद्रुताः । प्रतिरथ्यमिमाः स्वैरं नृत्यात्यप्सरसो भुवि ॥१८६॥ सुरनारीमुखालोकज्योत्स्नास्नापितदिङ मुखम् । सौभाग्येनेव निवृत्तं दिनमप्यतिमासते ॥१८॥ एते वेत्रलतांधृत्वा केचित् तत्कांक्षिणः सुराः। प्रायान्ति प्रेक्षकान्किश्चिदुत्सार्योत्सायं लीलया॥१८॥ ईशे जनसंपर्दे बालकोऽप्यतिदुर्गमे । नावसीदति कस्यायमनुभावोऽत्र लक्ष्यते ॥१८६।। सर्वगीर्वारणतेजांसि परिभूयातिवर्तते । 'तप्तचामीकराकारा शिशोरेषा तनुप्रभा ।।१६०॥ गजस्कन्धनिविष्टोऽपि लोकस्यैवोपरि स्थितः। शक्रेरणालम्बितो भाति भुवनालम्बनोऽप्ययम् ।।१६१॥ पौरस्त्रीमुच्यमानाय॑लाजवृष्टिपरम्परा । सितिम्ना द्विरदस्यास्य कुम्भभागे५ न भाव्यते ॥१२॥ दृश्यते सममेवायं सुवीथिमतिहस्तयन् । एकोऽप्यनेकदेशस्थैः सम्मुखीनो यथा जनः ॥१९॥ एते 'क्रव्याशिनो व्यालाः 'सानुक्रोशा इवासते। प्रभूद्धर्ममयो लोकः सकलोऽप्यस्य वैभवात् ॥१६४।। इति नारीभिरप्युच्चः कीर्त्यमानगुणोदयम् । तं पुरोधाय सौधर्मो राजद्वारं समासदत् ।।१९।। प्रवृत्तनिर्भरानेकजनसम्मर्ददुर्गमम् । कृच्छ्रादिवाति'चक्राम गोपुरं सुरसंहतिः ॥१९६।। भूपेन्द्रोऽपि समं भूपैर्माङ्गल्यव्यग्रपाणिभिः । सप्तकक्षा व्यतिक्रम्य क्रमात्प्रत्युद्ययो प्रभुम् ॥१७॥ साज से सहित ये अप्सराएं पृथिवी पर गली गली में इच्छानुसार नृत्य कर रही हैं ॥१८६॥ देवियों के मुख की कान्ति रूपी चांदनी से जिसमें दिशाओं के अग्रभाग नहलाये गये हैं ऐसा यह दिन भी सौभाग्य से रचे हुए के समान अत्यन्त सुशोभित हो रहा है ।।१८७॥ जिनबालक के देखने की इच्छा करने वाले ये कितने ही देव वेत्रलता-छड़ी को धारण कर दर्शकों को कुछ हटा हटा कर लीला पूर्वक आ रहे हैं ॥१८८।। ऐसी बहुत भारी भीड़ में भी यह बालक दुखी नहीं हो रहा है सो यहां यह किसका प्रभाव दिखायी दे रहा है ? ॥१८६।। तपाये हुए सुवर्ण के आकार वाली यह बालक के शरीर की प्रभा सब देवों के तेज को परिभूत-तिरस्कृत कर विद्यमान है ।।१६०॥ यह बालक हाथी के कन्धे पर बैठा हुआ भी ऐसा लगता है मानों लोक के ही ऊपर स्थित हो और इन्द्र के द्वारा प्रालम्बित होने पर भी ऐसा सुशोभित हो रहा है मानों समस्त संसार का आलम्बन हो ॥१९१।। नगर की स्त्रियों द्वारा छोड़े जाने वाले अर्घ्य की लाज वृष्टि की संतति इस हाथी के गण्डस्थल पर उसकी सफेदी के कारण मालूम नहीं पड़ती है ॥१६२।। राजमार्ग में प्रवेश करता हुआ यह बालक यद्यपि एक है तो भी अनेक देशों में स्थित मनुष्यों के द्वारा एक ही साथ ऐसा देखा जा रहा है मानों सबके संमुख स्थित हो ॥१९३।। ये मांस भोजी दुष्ट जन्तु भी ऐसे बैठे हैं मानों दया से सहित ही हों । इस बालक के प्रभाव से समस्त लोक ही धर्ममय हो गया है ॥१६४।। इसप्रकार स्त्रियों के द्वारा उच्च स्वर से जिनके गुणों का उदय प्रशंसित हो रहा था ऐसे उस बालक को आगे कर सौधर्मेन्द्र राजद्वार को प्राप्त हुया ॥१६॥ अनेक मनुष्यों की बहुत भारी भीड़ से जिसमें निकलना कठिन था ऐसे गोपुर को देव समूह बड़ी कठिनाई से पार कर सका था ॥१६६॥ राजाधिराज विश्वसेन ने भी माङ्गलिक द्रव्यों को हाथ में लेने वाले राजाओं के साथ क्रम १ उल्लोचतलविद्यमानाः २ निष्टप्तसुवर्णसदृशी ३ शौक्ल्येन ४ गजस्य ५ गण्डस्थलभागे ६ मांसाशिनोः, ७ क्रूराः ८ सदया: ६ उल्लङ्घयामास १० देवसमूहः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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