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________________ त्रयोदशः सर्गः १८७ अनारसं यतो लोकस्त्वत्तः शान्तिमवाप्नुयात् । प्रतो नाम्नासि शान्तिस्त्वं शान्तसंसारकारणः ॥१७५।। इति स्तुत्वा मुदा शक्रस्तमादाय विभूषितम् । 'पुरेव परया भूत्या तत्पुराभिमुखं ययौ। १७६।। पाराभेरीरवं श्रुत्वा सुरकोलाहलाविलम । प्रत्युदीर्य ततः पौरैविधताधैः ससंम्रमम् ।।१७७॥ प्रारूढाः सर्वतः स्त्रीभिः २स्थेयांसोऽप्याचकम्पिरे। प्रासादास्तन्मनःसक्तकौतुकातिभराविव ।।१७८॥ सुराः पुरजनीकान्स्या निजितं स्ववधूजनम् । पालोक्यावतरन् व्योम्नस्त्रपयेवानि शनैः ॥१७॥ अमरैः सह पौराणां सर्वतोऽप्येक्यमोयुषाम् । अन्तरं पनिमिषैरेव चक्रे चित्रं महत्तदा ॥१०॥ प्रक्लुप्ताट्टपथाकल्पं 'नीरजीकारिताजिरम् । तत्पुरं स्वरुचेवासीद्देवानपि विलोभयत् ॥१८१।। वोक्षमारणाः परां भूति तस्य प्रविशतः पुरम् । इति सौधस्थिताः प्राहुविस्मयात्पुरयोषितः ॥१८२।। निरुच्छवासमिदं व्याप्तं नगरं सर्वतः सुरैः । अन्तर्बहिश्च कस्येयं लक्ष्मीर्लोकातिशायिनी ॥१८३॥ एकस्यैवातपत्रस्य छायया कुन्दगौरया । क्रान्तं दिवापि गगनं सज्ज्योत्स्नमिव वर्तते ॥१८४॥ चामराणां प्रमाजालव्याजेनेव समन्ततः । दिग्धाः पुण्याङ्गरागरण विभान्ति हरिदङ्गना. ॥१८॥ कारण संसार आपसे निरन्तर शान्ति को प्राप्त करेगा उस कारण आप नाम से शान्ति हैं। आपने संसार के कारणों को शान्त कर दिया है ॥१७५।। इस प्रकार हर्ष से स्तति कर तथा विभूषित उन भगवान् को लेकर इन्द्र पहले के समान बड़ी विभूति से उस नगर की ओर चला ॥१७६॥ तदनन्तर देवों के कोलाहल से सहित भेरी का शब्द दूर से सुनकर नगरवासी जन अर्घ ले लेकर संभ्रमपूर्वक अगवानी के लिए निकल पड़े ॥१७७॥ जिन पर सब ओर से स्त्रियां चढ़ी हुई थीं ऐसे महल स्थिर होने पर भी कांपने लगे थे इससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानों मन में स्थित कौतुक के बहुत भारी भार से ही कांपने लगे थे ॥१७८॥ देव, नगर की स्त्रियों की कान्ति से अपनी स्त्रियों को पराजित देख लज्जा से ही मानों आकाश से धीरे धीरे पृथिवी पर उतर रहे थे ॥१७६।। उस समय सभी अोर से देवों के साथ एकता को प्राप्त हुए मनुष्यों का अन्तर पलकों के द्वारा ही किया गया था यह बड़े आश्चर्य की बात थी ॥१८०॥ जिसमें अट्टालिकाओं और मार्गों की सजावट की गयी थी तथा जिसके प्रांगन धूली से रहित किये गये थे ऐसा वह नगर अपनी कान्ति से मानों देवों को भी लुभा रहा था ॥११॥ __ नगर में प्रवेश करते हुए भगवान् की उत्कृष्ट विभूति को देखती हुई महलों पर चढी नगर की स्त्रियां आश्चर्य से ऐसा र्य से ऐसा कह रहीं थीं।।१८२॥ देखो. यह नगर भीतर और बाहिर, सब ओर देवों से ऐसा व्याप्त हो गया कि सांस लेने को भी स्थान नहीं है, यह लोकोत्तर लक्ष्मी किसकी है ? ॥१८३॥ एक ही छत्र की कुन्द के समान शुक्ल कान्ति से व्याप्त हुआ आकाश दिन में भी चांदनी से सहित जैसा हो रहा है ।।१८४।। चामरों को कान्ति कलाप के बहाने दिशा रूपी स्त्रियां ऐसी जान पड़ती हैं मानों सब ओर से पुण्य रूपी अङ्गराग से ही लिप्त हो रही हैं ॥१८५।। चंदेवा के नीचे वर्तमान और दिव्य नयनपक्षमपातैरेव निधूली १ पूर्ववत् २ अतिशयेन स्थिरा भपि ३ पृथिवीम् ४ प्राप्तवताम् कृताङ्गणम् ७दिक स्त्रियः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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