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श्रीशान्तिनाथपुराणम् व्रतेष्वनतिचारेण शीलेषु च समाचरन् । सुधीः सुधीरतां स्वस्य प्रथयामास चेतसः ॥१३८।। नयप्रमाणनिक्षेपमयमभ्यस्यतः श्रुतम् । षड्मव्यमिचितं तस्य जगत्प्रत्यक्षतामयात् ॥१३६॥ व्यापृतोऽभूद्यथान्यायं वैयावृत्त्ये निरत्ययम् । स समाधि च साधूनां निराधिरधिताधिकम् ॥१४०॥ दुश्चरापि तपश्चर्या तेनाचर्यत शक्तित: । 'क्रियासुरथ कोसीद्य क्रियासु स्वहितासु के ॥१४१॥ रागादिकं स्वसंसक्तं त्यजतस्तस्य दुस्त्यजम् । लोकातीतापरा काचित्यागशक्तिविदिधु ते ॥१४२।। भक्त्या जिनागमाचार्यसुबहुश्रुतसक्तया । प्रह्वीकृतोऽप्यभूच्चित्रमव्यग्रात्मा समुन्नतः ॥१४३॥ धर्मेऽनुरज्यतो नित्यं तस्य धर्मफलेषु च। प्रादुर्बभूव संवेगश्चित्रं मन्दगतेरपि ॥१४४॥ यथाकालं षडावश्यकर्मसु 'प्रसृतोऽभवत् । तथापि सुखिनामासीवेकः प्राग्रहरः परः ॥१४५।। ज्ञानेन तपसोऽन' जिनस्य च सपर्यया। संगतः साधुचक्रेण' चक्रे मार्गप्रभावनाम् ॥१४६॥ ग्रन्थग्रन्थिषु संशोतिमपरेषामशेषयन् । नित्यं प्रवचने तेने वात्सल्यं साधुवत्सलः ॥१४७॥
व्रतों तथा शीलों के अतिचार बचा कर निर्दोष तपश्चरण करते हुए वे ज्ञानवान् मुनिराज अपने चित्त की सुधीरता को प्रकट करते थे ॥१३८।। नय प्रमाण और निक्षेपों से तन्मय श्रुत का अभ्यास करने वाले उन मुनिराज के लिये छहद्रव्यों से व्याप्त जगत् प्रत्यक्षता को प्राप्त हुआ था ॥१३६॥ वे निरन्तर यथा योग्य वैयावृत्य में तत्पर रहते थे तथा मानसिक व्यथा-ग्लानि आदि से रहित हो अत्यधिक रूप से साधु समाधि करते थे ।।१४०।। वे शक्ति अनुसार कठिन तपश्चर्या भी करते थे सो ठीक ही है क्योंकि आत्महितकारी क्रियाओं में शिथिलता कौन करते हैं? अर्थात कोई नहीं ॥१४॥ जिनका छोड़ना कठिन है ऐसे आत्म संबन्धी रागादिक को छोड़ने वाले उन मुनिराज की कोई अनिर्वचनीय लोकोत्तर त्याग शक्ति विशिष्ट रूप से शोभायमान हो रही थी ॥१४२।।
जिनकी आत्मा निराकुल थी ऐसे वे मुनिराज जिनागम, प्राचार्य तथा बहुश्रुतजनों की भक्ति से नम्रोभूत होने पर भी समुन्नत थे यह आश्चर्य की बात थो ॥१४३।। धर्म तथा धर्म के फल में निरन्तर अनुराग करने वाले वे मुनिराज यद्यपि मन्दगति-ईर्यासमिति से धीरे धीरे चलते थे (पक्ष में निर्भय मनुष्य के समान मन्थर गति से चलते थे) तोभी उनके संवेग-धर्म और धर्म के फल में उत्साह (पक्ष में भय) प्रकट हुआ था, यह आश्चर्य को बात थी। भावार्थ-भयवान् मनुष्य जल्दी भागता है परन्तु वे परलोक सम्बन्धी भय से युक्त होकर भी मन्द गति से चलते थे यह आश्चर्य था परिहार पक्ष में ईर्या समिति के कारण धीरे धीरे चलते थे ।।१४४।। वे छह आवश्यक कार्यों में यथा समय तत्पर रहते थे तोभी सुखी मनुष्यों में अद्वितीय, श्रेष्ठ तथा अग्रसर थे ।।१४५।। वे प्रशस्त ज्ञान, निर्दोष तप, जिनेन्द्र पूजा तथा साधु समूह से युक्त हो मार्ग प्रभावना करते थे ।।१४६।। साधुओं से स्नेह रखने वाले वे मुनिराज ग्रन्थ के कठिन स्थलों में दूसरों का संशय दूर करते हुए निरन्तर प्रवचन में वात्सल्यभाव को विस्तृत करते थे ।।१४७।। इस प्रकार तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध में कारणभूत सोलह
१ आशीलिङ्गप्रयोगः २ शैथिल्यम् ३ तत्परः ४ श्रेष्ठः ५ प्रशस्तेन ६ साधुसमूहेन ७ शास्त्रकठिनस्थलेषुः ८ समापयन् ।
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