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________________ द्वादशः सर्गः १६५ तीर्थकृत्कारणान्येवं सम्यगभ्यस्यता सता । तेनाकारि तपो घोरमघ' संघातघातकृत् ।। १४८ ।। * प्रवद्यन् राजसान्भावानवचरहिताशयः । श्रुताधिकोऽप्यसूच्चित्रं नितरां भुवि विश्रुतः ॥ १४६ ॥ । वैराग्यस्य परां कोटिमध्यासीनः समन्ततः । उवस्थित तथाप्युच्चैः सिंह' नि: क्रीडित स्थितौ ।। १५०॥ इत्थं तपस्यता तेन कषायारोन्निरस्थता " । कालोsनायि नयज्ञेन भूयान्भूतहितार्थिना ।। १५१।। ग्रहणस्य च शिक्षायाः कालं नीत्वा यथागमम् । गणपोषणकालं च चिरकालमधत्त सः ।।१५२।। प्रात्मसंस्कारकालेन वर्तयित्वार्तवजितः । ततः सल्लेखनाकालमन्यतिष्ठदनिष्ठितम् ।। १५३ ।। प्रङ्गः सह तनूकृत्य कषायान्धनबन्धनान् । 'चतुरो यमिनां मार्गे 'चतुरो नितरामभूत् ।। १५४ । । मुनीनां तिलको नित्यं प्रोत्फुल्लतिलकोत्करे । तिलकाख्ये गिरावास्त प्रायः प्रायोपवेशने ' ।। १५५ ।। धीरः स्वपरसापेक्षनिरपेक्षश्चतुविधम् । घध्यानमिति ध्यातुमात्माधीनः प्रचक्रमे ।। १५६ ।। यथागमगतं सम्यग्द्रव्यमयं च चिन्तयन् । श्राज्ञाविचयसद्भावं मावयामास तस्वतः ।। १५७ ।। : कारण भावनाओं का अभ्यास करते हुए उन्होंने पाप समूह का नाश करने वाला घोर तप किया था ।। १४८ ।। जो राजस - रजोगुणप्रधान भावों को खण्डित कर रहे थे तथा जिनका अभिप्राय पाप से रहित था ऐसे वे मुनिराज श्रुताधिक-शास्त्र ज्ञान से अधिक होकर भी विश्रुत - शास्त्रज्ञान से रहित थे यह आश्चर्य की बात थी । ( परिहार पक्ष में विश्रुत - विख्यात थे ) ॥ १४६ ॥ वे सब ओर से वैराग्य की परम सीमा को प्राप्त थे तो भी उत्कृष्ट सिंह जैसी क्रीड़ा की स्थिति में उद्यत रहते थे— सिंह के समान शूरता दिखलाते थे ( पक्ष में उत्कृष्ट सिंह निष्क्रीडित व्रत का पालन करते थे ) । । १५० ।। इस प्रकार तपस्या करते, कषाय रूपी शत्रुओं को नष्ट करते तथा जीव मात्र के हित की इच्छा करते हुए उन नयों के ज्ञाता मुनिराज ने बहुत काल व्यतीत किया ।। १५१ ।। शिक्षा ग्रहण का काल श्रागमानुसार व्यतीत कर उन्होंने चिरकाल तक गरणपोषण का काल भी धारण किया अर्थात् आचार्य पद पर आसीन होकर मुनिसंघ का पालन किया ।। १५२ ।। तदनन्तर आत्मा को सुसंस्कृत करने का काल व्यतीत कर अर्थात् आत्मा में ज्ञान और वैराग्य के संस्कार भर कर उन्होंने किसी क्लेश के बिना ही चिरकाल तक सल्लेखना काल को धारण किया ।। १५३ ॥ अङ्गों के साथ तीव्र बन्ध के कारणभूत चार कषायों को कृश कर वे मुनि-मार्ग में प्रत्यंत चतुर हो गये थे ।। १५४ । । वे श्रेष्ठ मुनिराज जहां निरन्तर तिलक वृक्षों का समूह फूला रहता था ऐसे तिलक नामक पर्वत पर प्रायोपगमन संन्यास में बैठे ।। १५५ ।। सल्लेखना काल में जो अपने शरीर की टहल स्वयं तो करते थे पर दूसरे से नहीं कराते थे तथा जिन्होंने अपनी मनोवृत्ति को अपने अधीन कर लिया था ऐसे वे धीर वीर मुनि चार प्रकार के धर्म्यध्यान का इसप्रकार ध्यान करने के लिये उद्यत हुए ।।१५६ ।। श्रागम में जैसा वर्णन है वैसा द्रव्य और अर्थ का चिन्तन करते हुए उन्होंने परमार्थ से श्राज्ञाविचय नामक धर्म्य ध्यान का चिन्तवन किया था ।। १५७ ।। समीचीन मार्ग को न पाने वाले जीव १ पापसमूह विघातकृत् २ खण्डयन् ३ विगतं श्रुतं यस्य तथाभूतः पक्षे प्रसिद्धः ४ सिंहनिsatsa नामक विशिष्टतपसि ५ निराकुर्वता ६ चतु:संख्यकान् ७ दक्षः प्रायोपगमन संन्यासे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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