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________________ द्वादशः सर्ग। यथा तस्यारुचद्राज्यं पुरा बद्ध ररातिभिः । 'हषोकैः शक्तिसम्पन्नस्वथा नयविदस्तपः ॥१२६।। स ररक्ष यषापूर्व मन्त्रं पञ्चाङ्गसंभृतम् । तपश्चरंस्तथा यत्नात्संयमं यमिनां मतम् ॥१३०॥ गुणैर्ययाववम्यस्तव्यंघोतिष्ट यथा पुरा। अप्रमत्तस्तथा षड्भिः शमस्थो नित्यकर्मभिः ॥१३॥ पूर्व यथा स राज्याङ्ग:प्राज्यर्लोकमनोहरः । तथा वनगतः स्वाङ्गः कृशेरपि तपस्यया ।।१३२॥ रञ्जयन्प्रकृतीनित्यं यथा राज्यगतो बभौ । तथासौ क्षपयन्सप्तप्रकृतीस्तपसि स्थितः ॥१३३।। उपास्थित यथामात्यापुरा नयविशारवान् । स तथा श्रमणान्पूर्वान्परलोकजिगीषया ॥१३४।। पुरा प्रवर्तयामास राज्यं द्वापशषा स्थितम् । तथा यथागमं धीरश्चिरकालं तपः परम् ॥१३॥ भावयामास भावज्ञः शकूराका माविजितः । सम्यक्त्पतिमव्यग्रसमग्रसुखहेतुकाम् ॥१३६।। गुरुवाचार्यवर्येषु श्रुते वापि बहुभुतः । यथागम मनुत्तानो विनयं विततान सः॥१३७॥ गृहस्थावस्था में उनका राज्य नियन्त्रित शत्रुओं से सुशोभित होता था उसीप्रकार नयों के ज्ञाता मुनिराज मेघरथ का तप भी नियन्त्रित शक्ति शाली इन्द्रियों से सुशोभित हो रहा था। भावार्थगृहस्थावस्था में वे जिस प्रकार शक्तिशाली शत्रुओं को बांधकर रखते थे उसी प्रकार तपस्वी अवस्था में शक्तिशाली इन्द्रियों को बांधकर स्वाधीन कर रखते थे ॥१२६॥ जिसप्रकार वे पहले सहायक साधनोपाय, देश विभाग, काल विभाग और आपत्प्रतिकार इन पांच अङ्गों से सहित मन्त्र-राज्य तन्त्र की रक्षा करते थे उसी प्रकार तपश्चरण करते हुए अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पांच अङ्गों से सहित मुनिसंमत संयम की रक्षा करते थे ।।१३०॥ ___जिसप्रकार वे पहले अच्छी तरह अभ्यस्त किये हुए सन्धि विग्रह आदि छह गुणों से सुशोभित होते थे उसी प्रकार प्रमाद रहित तथा प्रशम गुण में स्थित रहते हुए वे अच्छी तरह अभ्यस्त समता, वन्दना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और कायोत्सर्ग इन छह नित्य कार्यों से सुशोभित होते थे ॥१३१।। जिसप्रकार वे पहले मंत्री आदि श्रेष्ठ राज्य के अङ्गों से लोक प्रिय थे उसीप्रकार वन में पहुंच कर तपस्या से कृश हुए अपने अङ्गों-शरीर के अवयवों से लोक प्रिय थे ॥१३२॥ जिस प्रकार राज्यावस्था में निरन्तर मन्त्री आदि सात प्रकृतियों को प्रसन्न करते हुए सुशोभित होते थे उसी प्रकार तप अवस्था में भी वे सात कर्म प्रकृतियों का क्षय करते हुए सुशोभित हो रहे थे ॥१३३॥ जिस प्रकार वे पहले परलोक-शत्रुसमूह को जीतने की इच्छा से नीति निपुण मंन्त्रियों के पास बैठते थे उसी प्रकार अब परलोक-नरकादि गतियों को जीतने की इच्छा से पूर्वविद् मुनियों के पास बैठते थे ॥१३४॥ जिसप्रकार वे धीर वीर पहले बारह प्रकार से स्थित राज्य को प्रवर्तित करते थे उसीप्रकार अब चिरकाल तक आगमानुसार बारह प्रकार के उत्कृष्ट तप को प्रवर्तित करते थे ।।१३५।। भावों के ज्ञाता तथा शङ्का कांक्षा आदि दोषों से रहित उन मुनिराज ने संपूर्ण निराकूल सुख की कारणभूत दर्शन--विशुद्धि भावना का चिन्तवन किया था ।।१३६।। अनेक शास्त्रों के ज्ञाता तथा गर्व से रहित वे मुनिराज गुरुओं, श्रेष्ठ आचार्यों तथा शास्त्रों की आगमानुसार विनय करते थे ॥१३७।। १ इन्द्रिय। २ सहाया: साधनोपाया विभागो देशकालयोः विनिपातप्रतीकार: सिद्धिः पञ्चाङ्गमिष्यते' पक्षे अहिंसादिपञ्चभेदसहितं ३ समता-वन्दना-स्तुति-प्रतिक्रमण-स्वाध्याय-कायोत्सर्गाख्यः षडावश्यकै ४ अगः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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