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________________ १६२ श्री शान्तिनायपुराणम् एकं प्रशमसंवेगदया स्तिक्यादिलक्षणम् । श्रात्मनः शुद्धिमानं स्यादितरच्च समन्ततः ॥ ११८ ॥ सम्यक्त्वाधिकृतो भावान्मव्यः शुश्रूषते ततः । साधूनुदीक्षते सेम्य: श्रुतज्ञानमवाप्नुयात् ॥११३॥ विज्ञातागमसद्भावो विरति प्रतिपद्यते । विरते रात्रवापायः प्रादुः स्यात्संवरस्ततः ।। १२० ।। संवरस्तपसो हेतुस्तपसा निर्जरा परा । ततः क्रियानिवृत्तिः स्वास्त्रियाहानेर योगिता ।। १२१|| भवसन्ततिविच्छेदः परो योगनिरोधतः । ततो मोक्षो भवेदेवं सम्यक्त्वं मुक्तिकारणम् ||१२२॥ श्रात्मनस्तपसा तुल्यं न हितं विद्यते परम् । तस्मात्सर्वात्मना भव्येस्तस्मिन्यत्नो विधीयताम् ।।१२३ ।। इत्यावेद्य हितं तस्थे मध्येसभमुदारधीः । राज्यभोगांस्तदा राजा 'जिहासुः स्वयमप्यभूत् ।। १२४॥ प्रथान्तिस्थमालोक्य तनयं नन्दिवर्धनम् । इत्यवादीत्प्रजास्त्रातु पर्यायस्तव वर्तते ॥१२५ ।। इत्युक्त्वा राजचिह्नानि तस्मै दत्त्वाग्रहोत्तपः । पितुस्तीर्थकृतो मूले भ्रात्रां मेघरथः समम् ।। १२६ ।। प्रन्येऽपि बहवी भूपास्तं वीक्ष्यासंस्तपोधनाः । प्रणम्य सुव्रतामार्यां प्रियमित्रापि सुव्रता ।। १२७॥ मृपासनगतो यथा । स तथैव सुनीलुच्चेः श्रुतस्कन्धमधिष्ठितः ॥ १२८ ॥ पानवरयामास क्षयोपशम से होते हैं ऐसा सुबुद्धिमान् जीव कहते हैं ।। ११७ । । [ उस सम्यक्त्व के सराग और वीतराग के भेद से दो भेद भी होते हैं ] उनमें एक तो प्रशम संवेग अनुकम्पा और आस्तिक्य आदि लक्षणों से युक्त है और दूसरा सब ओर से आत्मा की विशुद्धि मात्र है ।। ११८ ॥ सम्यग्दृष्टि जीव, जीवाजीवादि पदार्थों को सुनने की इच्छा रखता है इसलिये साधुओं के संपर्क में आता है और उनसे श्रुतज्ञान को प्राप्त होता है ।। ११६ ॥ श्रागम के अभिप्राय को जानने वाला मनुष्य विरति -पांच पापों से निवृत्ति को प्राप्त होता है, विरति से आस्रव का अभाव होता है और उससे संवर प्रकट होता है ।। १२० ।। संवर तप का कारण है, तपसे अत्यधिक निर्जरा होती है, निर्जरा से क्रिया का प्रभाव होता है और क्रिया के अभाव से प्रयोगी अवस्था प्राप्त होती है ॥१२१॥ योगनिरोध से संसार की संतति का सर्वथा उच्छेद हो जाता है और उससे मोक्ष प्राप्त होता है, इस प्रकार सम्यग्दर्शन मुक्ति का कारण है ।। १२२ ।। तप के समान आत्मा का दूसरा हित नहीं है इसलिए भव्य जीवों को सब प्रकार से तप में प्रयत्न करना चाहिए ।। १२३ ।। इस प्रकार उत्कृष्ट बुद्धि के धारक राजा मेघरथ सभा के बीच में रानी के लिये हित का उपदेश देकर स्वयं भी उस समय राज्यभोगों को छोड़ने के लिए इच्छुक हो गये ।। १२४।। तदनन्तर समीप में स्थित नन्दिवर्धन पुत्र को देखकर इस प्रकार कहने लगे कि प्रजा की रक्षा करने का क्रम तुम्हारा है ।। १२५ ।। ऐसा कहकर तथा उसके लिए छत्र चमर आदि राज चिह्न देकर मेघरथ ने भाई दृढ़रथ के साथ पिता घनरथ तीर्थंकर के समीप तप ग्रहरण कर लिया ।। १२६ ।। अन्य अनेक राजा भी उन्हें देखकर साधु हो गये । प्रियमित्रा रानी भी सुव्रता नाम की आर्या को नमस्कार कर सुव्रता - उत्तम व्रतों से युक्त हो गयी अर्थात् आर्यिका बन गयी ।। १२७ ।। जिस प्रकार राजासन पर श्रारूढ़ राजा मेघरथ, अन्य राजाओं को अपने हीन करते थे उसी प्रकार अत्यन्त उन्नत श्रुतस्कन्ध पर प्रारूढ़ होकर अन्य मुनियों को अपने से हीन करते थे ।। १२८ ।। जिस प्रकार पहले १ हातु व्यक्तुमिच्छुः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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