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________________ श्रीशान्तिनाथपुराणम् 'स्वभुवामभिवन्धन कस्त्वया वन्दितः प्रभो । तमपृच्छदितीन्द्राणी सुरेन्द्र विस्मयाकुला ॥७३॥ रावा मेघरको नाम धैर्यराशिर्मया नतः । तिष्ठन्नप्रतिमो रात्रिप्रतिमां प्रीतचेतसा ॥७॥ इतीन्द्रेणेरितं तस्य मेत्तुं धैर्य सुरस्त्रियौ । श्रुत्वावतेरतुभूमिमरणा विरजा च ते॥७५।। प्रथ चैत्यालयस्याने विविक्तवलिशोभिते । ऊर्ध्वस्थितमतिप्रांशुमानस्तम्भमिवापरम् ॥७॥ बाह्यकक्षाविभागस्थः शान्तभावरनायुधैः । वाचं यमायमानः स्वर्भूत्यैः कश्चिदुपासितम् ॥७७॥ चिन्तयन्तमनुप्रेक्षां घोणाग्रनिहितेक्षणम् । दधानं शान्तया वृत्त्या सजीवप्रतिमाकृतिम् ॥७॥ तारागणैः प्रतीकेषु सर्वतः प्रतिबिम्बितैः। निष्पतद्भिः स्वतो युक्तं यशसः प्रकररिव ।।७।। ध्यानाच्छिथिलगात्रेभ्यः पतद्भिर्मरिणभूषणः । रागभावैरिवान्तःस्थमुच्यमानं समन्ततः॥०॥ पतरङ्गमिवाम्भोधिमकाननमिवाचलम् । मापं दहशतुर्देव्यो त विमुक्तपरिच्छवम् ।।८१॥ (षड्भिः कुलकम् ) वचसा चेष्टितेनापि शृङ्गाररसशालिना । ते तस्य मनसः क्षोभं चक्रतुन सुरस्त्रियौ ॥१२॥ 'सौभाग्यभङ्गसंभूतत्रपाविनमितानने । ततः सुराङ्गने (नत्वा पुनः स्वास्पदमीयतुः ॥८३ । से पूछा कि हे प्रभो! आप स्वयं देवों के वन्दनीय हैं फिर आपने किसे नमस्कार किया है ? ॥७३।। प्रसन्न चित्त इन्द्र ने कहा कि रात्रि के समय प्रतिमा योग धारण करने वाले धैर्य की राशि स्वरूप अनुपम राजा मेघरथ को मैंने नमस्कार किया है । इसप्रकार इन्द्र का कथन सुन कर राजा मेघरथ के धैर्य को भग्न करने के लिये अरजा और विरजा नाम की दो देवाङ्गनाएं पृथिवी पर उतरीं ॥७४-७५।। तदनन्तर पवित्र रङ्गावली से सुशोभित चैत्यालय के आगे जो खड़े हुए थे तथा अत्यन्त ऊंचे दूसरे मानस्तम्भ के समान जान पड़ते थे । बाहय कक्षा के विभाग में स्थित, शान्तचित्त, शस्त्ररहित और मौन से स्थित अपने कुछ भृत्य जिनकी उपासना कर रहे थे, जो अनुप्रेक्षात्रों का चिन्तवन कर रहे थे, नासिका के अग्रभाग पर जिनकी दृष्टि लग रही थी, जो शान्तवृत्ति सजीव प्रतिमा की आकृति को धारण कर रहे थे, अङ्गों में सब ओर से प्रतिबिम्बित तारागरणों से जो ऐसे जान पड़ते थे मानों अपने आप से निकलने वाले यश के समूहों से ही युक्त हों, ध्यान से शिथिल शरीर से गिरते हुए मणिमय आभूषणों से जो ऐसे जान पड़ते थे मानों भीतर स्थित राग भाव हो उन्हें सब ओर से छोड़ रहे हों, जो लहरों से रहित समुद्र के समान थे, वन से रहित पर्वत के समान जान पड़ते थे और जिन्होंने सब वस्त्रादि को छोड़ दिया था ऐसा राजा मेघरथ को उन देवाङ्गनाओं ने देखा ॥७६-८१॥ शृङ्गार रस से सुशोभित वचन और चेष्टा के द्वारा भी वे देवाङ्गनाएं उनके मन में क्षोभ उत्पन्न नहीं कर सकीं ॥८२॥ तदनन्तर सौभाग्य के भङ्ग से उत्पन्न लज्जा के द्वारा जिनके मुख नीचे की ओर झुके हुए थे ऐसी वे देवाङ्गनाएं नमस्कार कर पुनः अपने स्थान पर चली गयीं ॥८३॥ इस प्रकार परमार्थ से १ देवानाम् २ पवित्ररङ्गावली शोभिते ३ मौनस्थितैः ४ नासिकाग्रस्थापितलोचनं ५ अवयवेषु ६ सौभाग्यस्य भङ्गन संभूता समुत्पन्ना या त्रया लज्जा तया विनमितं आननं ययोस्ते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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