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________________ द्वादशः सर्गः १५७ राजा प्रणीतमार्गेण कृत्वोत्क्रान्ति पतत्रिणौ । प्रत्युद्धभवनाभोगावभूतां 'भावनौ सुरौ ॥६२।। उपवासावसानेऽथ संप्रपूज्य जिनेश्वरम् । अगादवभृथस्नातो भूपो हृष्टः स्वमन्दिरम् ॥६३॥ निशान्तमेकदा तस्य प्रशान्तचरितान्वितः । यतिर्दमधरो धाम्नो विवेश विशदश्रियः ॥१४॥ प्रचिन्तितागतं राजा तं यथाविध्यमोजयत् । भुक्त्वा यथागमं सोऽपि तद्गृहान्निरगायतिः ॥६५॥ प्रावति प्रावृडम्मोदगम्भीरध्वनिना ततः । दिव्यदुन्दुभिघोषेण दिक्षु तद्दानयोषिणा ॥६६॥ अनुभूतरजोभ्रान्तिनिर्वापितमहीतलः । मन्दं मन्दं सुराजेव सुगन्धिः पवनो ववौ ॥६७॥ अपाति सुमनोवृष्टया सुमनीकृतभृङ्गया । सौरभाक्रान्तककुमा विवो दिविजमुक्तया ॥६॥ दिवः पिशङ्गयन्त्याशा निपतन्त्या रुचारचत् । विद्यु तामिव संहत्या वसुधा वसुधारया ॥६६॥ अहो दानमहो वानमिति वाचो दिवौकसाम् । प्रङ गुलीस्फोटसंमिश्रा विचेरुः परितः पुरीम् ॥७॥ स इत्यर्यः सतां प्राप्तपञ्चाश्चर्य: समं सुरैः। विस्मयाद् ददृशे पौरैर्बहुदृष्टोऽप्यदृष्टवत् ॥७१।। ईशानेन्द्रोऽन्यदा मौलिन्यस्तहस्तसरोरुहः । ननाम क्षितिमुद्दिश्य नमितामरसंहतिः॥७२॥ जीवन में उत्कृष्ट क्रान्ति-अत्यधिक सुधार कर दोनों पक्षी अत्यन्त श्रेष्ठ भवनों के विस्तार से सहित भवनवासी देव हुए ॥६२।। __तदनन्तर उपवास की समाप्ति होने पर जिनेन्द्र भगवान् की पूजा कर यज्ञान्तस्नान करने वाले राजा मेघरथ हर्षित हो अपने भवन गये ॥६३॥ एक समय निर्मल लक्ष्मी के स्थान स्वरूप राजा मेघरथ के अन्तःपुर में प्रशान्तचारित्र से सहित दमधर नामक मुनिराज ने प्रवेश किया ॥६४।। अचिन्तित आये हए उन मुनिराज को राजा ने विधिपूर्वक पाहार कराया और वे मुनिराज भी आगम के अनुसार आहार कर उनके घर से चले गये ॥६५।। तदनन्तर वर्षाकालीन मेघ के समान गम्भीर शब्द से युक्त तथा उनके दान की घोषणा करने वाला दिव्यदुन्दुभियों का शब्द दिशाओं में होने लगा ॥६६॥ उत्तम राजा के समान रज-धूली (पक्ष में पाप) के संचार को रोककर पृथिवी तल को संतुष्ट करने वाली सुगन्धित वायु धीरे धीरे बहने लगी ॥६७।। जिसने भ्रमरों को हर्षित किया था तथा सुगन्धि से दिशाओं को व्याप्त किया था ऐसी देवों के द्वारा आकाश से छोड़ी हुई पुष्पवृष्टि होने लगी ।।६८॥ कान्ति से दिशाओं को पीला करने वाली, आकाश से पड़ती हुई रत्नों की धारा से पृथिवी ऐसी सुशोभित हो गई मानों बिजलियों के समूह से ही सुशोभित हुई हो ॥६६ ।। 'अहोदानम्' 'अहोदानम्' यह देवों के वचन उनकी तालियों के शब्दों से मिश्रित होकर नगरी के चारों ओर फैल रहे थे ।।७०।। इस प्रकार जिसे पञ्चाश्चर्य प्राप्त हुए थे ऐसा वह सज्जनों का स्वामी राजा मेघरथ, यद्यपि अनेको बार देखा गया था तो भी देवों के साथ नगरवासियों के द्वारा आश्चर्य से अदृष्ट के समान देखा गया ॥७१॥ तदनन्तर किसी अन्य समय देव समूह को नम्रीभूत करने वाले ईशानेन्द्र ने पृथिवी को लक्ष्य कर हस्तकमलों को मस्तक पर लगा नमस्कार किया ।।७२।। आश्चर्य से युक्त इन्द्राणी ने उस इन्द्र ५ स्वामी १ भवनवासिनौ २ गृहम् ३ रत्नधारया 'वसु तोये धने मणौ' इति कोषः ४ देवानाम् 'अर्य: स्वामिवैश्ययोः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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