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(१७) तीर्थङ्कर हो सकते हैं । विदेह क्षेत्र में सदा चतुर्थ काल रहता है अतः मोक्ष मार्ग निरन्तर प्रचलित रहता है परन्तु भरत और ऐरावत क्षेत्र में काल चक्र परिवर्तित होता है अतः इसके तृतीय काल के अन्त और चतुर्थ काल में ही तीर्थंकरों का जन्म होता है । इस युग के प्रथम तीर्थंकर भगवान् वृषभदेव तृतीय काल में उत्पन्न हुए और जब तृतीय काल के तीन वर्ष साढ़े आठ माह बाकी थे तब मोक्ष चले गये । शेष तीर्थंकर चतुर्थ काल में उत्पन्न हुए और चतुर्थ काल में ही मोक्ष गये । अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी चतुर्थ काल के तीन वर्ष साढ़े आठ माह बाकी रहने पर मोक्ष गये थे। तीर्थकर का तीर्थ उनकी प्रथम देशना से शुरू होता है और आगामी तीर्थंकर की प्रथम देशना के पूर्व तक चलता है । पश्चात् अन्य तीर्थकर तीर्थ शुरू हो जाता है ।
शान्तिनाथ भगवान् भरत क्षेत्र के इस अवसर्पिणी युग सम्बन्धी सोलहवें तीर्थंकर हैं। इनके कितने ही पूर्वभव विदेह क्षेत्र में व्यतीत हुए थे। जैन पुराण कारों ने पूर्वभवों के वर्णन के साथ ही कथा नायक के वर्तमान भवों का वर्णन किया है इससे सहज ही विदित हो जाता है कि इस कथा नायक ने कितनी साधनाओं के द्वारा वर्तमान पद प्राप्त किया है। पूर्वभवसहित कथावृत्त के स्वाध्याय से पाठक के हृदय में प्रात्मबोध होता है। वह विचारने लगता है कि साधारण जीव जब ऋमिक पुरुषार्थ से इतने महान् पद को प्राप्त कर लेता है तब मैं पुरुषाथ हीन क्यों हो रहा हूं? मैं भी इसी प्रकार क्रम से पुरुषार्थ कर महान् पद प्राप्त कर सकता हूं और सदा के लिये जन्म मरण के चक्र से उन्मुक्त हो सकता हूँ। जैन सिद्धान्त यह स्वीकृत करता है कि जीवात्मा ही परमात्मा बनता है । ऐसा नहीं है कि जीवात्मा, सदा जीवात्मा ही बना रहता हो और परमात्मा अनादि से परमात्मा ही होता हो । उसके पूर्व उसकी जीवात्मा दशा नहीं होती। शान्तिनाथपुराण :
___ इस शान्तिनाथ पुराण की रचना कवि ने वर्धमान चरित की रचना के पश्चात् की है। जैसा कि ग्रन्थ के अन्त में स्वयं उन्होंने निर्देश किया है ।
चरितं विरचय्य सन्मतीयं सदलंकार विचित्रवृत्तवन्धम् स पुराणमिदं व्यधत्त शान्तेरसगः साधुजनप्रमोहशान्त्यै ।। ४१ ।।
अच्छे अच्छे अलंकार और नाना छन्दों से युक्त वर्धमान चरित की रचना कर असग ने साधुजनों का व्यामोह शान्त करने के लिये शान्तिनाथ का यह पुराण रचा।
इसमें १६ सर्ग हैं तथा २३५० श्लोक हैं जिनमें शार्दूल विक्रीडित ३२ वंशस्थ १ उत्पल माल हारिणी ३ प्रहर्षिणी १ इन्द्रवंशा १ वियोगिनी १ वसन्त तिलका १ और मालिनी २ शेष अनुष्टुप् छन्द हैं । रचना सरल तथा सुबोध होने पर भी श्लेषोपमा आदि अलंकारों के प्रसङ्ग में दुरूह हो गई है । संस्कृत टिप्पण देकर ऐसे प्रसङ्गों को स्पष्ट करने का प्रयास किया है । हिन्दी अनुवाद मूलानुगामी है।
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