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________________ ( १६ ) दर्शन विशुद्धि, विनयसंपन्नता, शीलव्रतेष्वनतिचार, अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, संवेग, शक्तितस्त्याग, शक्तितस्तप, साधुसमाधि, वैयावृत्यकरण, अर्हद्भक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, श्रावश्यक परिहारिण, मार्गप्रभावना और प्रवचन वत्सलत्व - इन सोलह कारणों से तीर्थंकर प्रकृति का प्रस्रव होता है । इन भावनाओं में षट्खण्डागम के सूत्र में वरिणत क्रम को परिवर्तित किया गया है। क्षरणलव प्रतिबोधनता भावना को छोड़कर श्राचार्य भक्ति रखी गई है, तथा प्रवचन भक्ति के नाम को परिवर्तित कर मार्ग प्रभावना नाम रखा गया है । अभिक्षरण अभिक्षरण ज्ञानोपयोग युक्तता के स्थान पर संक्षिप्तनाम अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग रखा है । लब्धिसंवेग भावना के स्थान पर 'संवेग' इतना संक्षिप्त नाम रखा है । क्षरणलव प्रतिबोधनता भावना को अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग में गतार्थ समझकर छोड़ा गया है, ऐसा जान पड़ता है और ज्ञान के समान श्राचार को भी प्रधानता देने की भावना से बहुश्रुत भक्ति के साथ प्राचार्य भक्ति को जोड़ा गया है। शेष भावनानों नाम और अर्थ मिलते-जुलते हैं । वर्तमान में षट्खण्डागम प्रतिपादित सोलह भावनाओं के स्थान पर तत्त्वार्थसूत्र प्रतिपादित सोलह भावनाओं का ही प्रचलन हो रहा है । शलाकापुरुष : । २४ तीर्थंकर १२ चक्रवर्ती नारायण बलभद्र और प्रतिनारायण ये ६३ शलाकापुरुष कहलाते हैं। इनमें चौबीस तीर्थंकर ही तद्भव मोक्ष गामी होते हैं । चक्रवर्तियों में कोई मोक्ष जाते हैं तो कोई नरक भी । बलभद्रों में कोई मोक्ष जाते हैं तो कोई स्वर्ग | नारायण और प्रतिनारायण नियम से नरकगामी होते हैं । तात्पर्य यह है कि तीर्थंकर पद सातिशय पुण्य शाली है । इसकी महिमा ही निराली है । इसके गर्भस्थ होने के छह माह पूर्व ही लोक में हल चल मच जाती है । भरत और ऐरावत क्षेत्र में दश कोड़ा कोड़ी सागर के प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में यह २४ ही होते हैं । ऐसी अनन्त चौबीसियां हो चुकी हैं और अनन्त चौबीसियां होती रहेंगी । भूत, वर्तमान और भविष्यत् काल की अपेक्षा तीन चौबीसी कहलाती हैं और ५ भरत तथा ५ ऐरावत इन दश क्षेत्रों की तीन काल सम्बन्धी चौबीसी की अपेक्षा तीस चौबीसी कहलाती हैं। भरतैरावत क्षेत्र के तीर्थंकर नियम से पांच कल्याणक वाले होते हैं और इनका श्रागमन नरक या देवगति से होता है । विदेह क्षेत्र में पांच मेरु सम्बन्धी चार नगरियों में सीमन्धर युग्मन्धर आदि २० तीर्थङ्कर सदा विद्यमान रहते हैं । सदा विद्यमान रहने का अर्थ यह नहीं है कि ये सदा तीर्थङ्कर ही रहते हैं मोक्ष नहीं जाते । एक कोटिवर्ष पूर्व की आयु समाप्त होने पर वे मोक्ष जाते हैं और उनके स्थान पर अन्य तीर्थङ्कर विराज मान हो जाते हैं । सीमन्धर आदि नाम शाश्वत हैं अर्थात् उनके स्थान पर जो भी विराजमान होते हैं वे उसी नाम से व्यवहृत होते हैं । इनके अतिरिक्त और भी तीर्थङ्कर हो सकते हैं । उन तीर्थंकरों में तीन और दो कल्याणकों के धारक भी होते हैं । विदेह क्षेत्र में एक साथ अधिक से अधिक १६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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