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(१५) ८. साधूनां प्रासुक परित्यागता :-साधुओं का निर्दोष ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा निर्दोष वस्तुओं का जो त्याग दान है उसे साधु प्रासुक परित्यागता कहते हैं।
___६. साधूनां समाधि संधारणा :-साधुओं का सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र में अच्छी तरह अवस्थित होना साधु समाधि संधारणा है ।
१०. साधूनां वैयावृत्य योगयुक्तता :-व्यावृत-रोगादिक से व्याकुल साधु के विषय में जो किया जाता है उसे वैयावृत्य कहते हैं। जिन सम्यक्त्व तथा ज्ञान प्रादि गुणों से जीव वैयावृत्य में लगता है उन्हें वैयावृत्य कहते हैं। उनसे संयुक्त होना वैयावृत्ययोगयुक्तता है ।
११. अरहन्त भक्ति :- चार घातिया कर्मों को नष्ट करने वाले अरहन्त अथवा पाठों कर्मों को नष्ट करने वाले सिद्ध परमेष्ठी अरहन्त शब्द से ग्राह्य हैं। उनके गुणों में अनुराग होना अरहन्त भक्ति है।
१२. बहुश्रु त भक्ति :-द्वादशाङ्ग के पारगामी बहुश्रु त कहलाते हैं, उनकी भक्ति करना बहुश्रुत भक्ति है।
१३. प्रवचन भक्ति-सिद्धान्त अथवा बारह अङ्गों को प्रवचन कहते हैं, उसकी भक्ति करना प्रवचन भक्ति है।
१४. प्रवचन वत्सलता-देशव्रती, महाव्रती, अथवा असंयत सम्यग्दृष्टि प्रवचन कहलाते हैं। उनके साथ अनुराग अथवा ममेदभाव रखना प्रवचन वत्सलता है।
१५. प्रवचन प्रभावना-मागम के अर्थ को प्रवचन कहते हैं, उसकी कीर्ति का विस्तार अथवा वृद्धि करने को प्रवचन प्रभावना कहते हैं ।
१६. अभिक्षण अभिक्षरण ज्ञानोपयोगयुक्तता-क्षरण क्षरण अर्थात् प्रत्येक समय ज्ञानोपयोग से युक्त होना अभिक्षण अभिक्षण ज्ञानोपयोग युक्तता है।
ये सभी भावनाएं एक दूसरे से सम्बद्ध हैं इसलिये जहाँ ऐसा कथन पाता है कि अमुक एक भावना से तीर्थंकर कर्म का बन्ध होता है। वहां शेषभावनाएं उसी एक में गभित हैं ऐसा समझना चाहिए।
इन्हीं सोलह भावनाओं का उल्लेख आगे चलकर उमास्वामी महाराज ने तत्त्वार्थ सूत्र में इस प्रकार किया है
'दर्शनविशुद्धिर्विनयसंपन्नता शीलवतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाधियावृत्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्मागप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य ।'
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