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________________ ( १४ ) प्रतिसमय ज्ञानोपयोग युक्तता, इन सोलह कारणों से जीव तीर्थंकर नाम गोत्र कर्म का बन्ध करते हैं । दर्शनविशुद्धता आदि का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है दर्शन विशुद्धता : तीन होना दर्शन विशुद्धता है। यहां किया है मूढताओं तथा शङ्का प्रादिक आठ मलों से रहित सम्यग्दर्शन का वीरसेन स्वामी ने निम्नांकित शङ्का उठाते हुए उसका समाधान शङ्का : – केवल उस एक दर्शन विशुद्धता से ही तीर्थंकर नाम कर्म का बन्ध कैसे संभव है ? क्योंकि ऐसा मानने से सब सम्यग्दृष्टि जीवों के तीर्थंकर नाम कर्म के बन्ध का प्रसङ्ग प्राता है । समाधान :- शुद्धनय के अभिप्राय से तीन मूढताओं और आठ मलों से रहित होने पर ही दर्शन विशुद्धता नहीं होती किन्तु पूर्वोक्त गुणों से स्वरूप को प्राप्त कर स्थित सम्यग्दर्शन का, साधुत्रों के प्रासु परित्याग में, साधुओंों की संधारणा में, साधुओं के वैयावृत्य संयोग में, अरहन्त भक्ति, बहुत भक्ति, प्रवचन भक्ति प्रवचन वत्सलता, प्रवचन प्रभावना, और अभिक्षण ज्ञानोपयोग से युक्तता में प्रवर्तने का नाम दर्शन विशुद्धता है । उस एक ही दर्शन विशुद्धता से जीव तीर्थंकर कर्म को बांधते हैं । २. विनय संपन्नता :- ज्ञान, दर्शन और चारित्र का विनय से युक्त होना विनय सम्पन्नता है । ३. शीलव्रतेष्वनतीचार :- अहिंसादिक व्रत और उनके रक्षक साधनों में प्रतिचार - दोष नहीं लगाना शीलव्रतेष्वनतीचार है । ४. श्रावश्यकापरिहीणता :- समता, स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और व्युत्सर्ग इन छह आवश्यक कामों में हीनता नहीं करना अर्थात् इनके करने में प्रमाद नहीं करना आवश्यकापरिहीणता है । ५. क्षणलवप्रतिबोधनता :- क्षरण और लव काल विशेष के नाम हैं । सम्यग्दर्शन, ज्ञान, व्रत पौर शील आदि गुणों को उज्ज्वल करना, दोषों का प्रक्षालन करना अथवा उक्त मुणों को प्रदीप्त करना प्रतिबोधनता है । प्रत्येक क्षरण अथवा प्रत्येक लव में प्रतिबुद्ध रहना क्षरणलव प्रतिबोधनता है । ६ लब्धिसंवेग संपन्नता :- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र में जीव का जो समागम होता है उसे लब्धि कहते हैं । उस लब्धि में हर्ष का होना संवेग है । इस प्रकार के लब्धि संवेग से - सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति विषयक हर्ष से संयुक्त होना लब्धि संवेग संपन्नता है । ७. यथास्थामतप :- अपने बल और वीर्य के अनुसार बाह्य तथा अन्तरङ्ग तप करना यथास्थामतप है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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