________________
१५४
श्रीशान्तिनापपुराणम् चतुर्णामनुयोगानां भेदातेषु चतुर्विधम् । भव्यात्मनां प्रशास्तारः शास्त्रदानं प्रचक्षते ॥२८॥ औषपश्चात्मना वाचा रोगार्तेषु प्रतिक्रिया। चातुर्वर्णेषु सङ्घषु भैषजं तन्निरुच्यते ॥२६॥ नीरोगो निर्भयस्वान्तः सर्वबिद्भोगवान्मवेत् । भेषजाभय शास्त्रान्नदानानां फलतो भवेत् ॥३०॥ व त्वं पात्रमिदं देयं न च सन्मार्गवेदिनः। महान्तो नाम कृच्छेऽपि नैवाकार्य प्रकुर्वते ॥३१॥ विमुञ्चतु भवान्वरं राजीवेऽस्मिन्पुरातनम् । भवतोर्वैरसम्बन्धं वदाम्यवहितो भव ॥३२।। अस्यैवैरावतक्षेत्रे जम्बूद्वीपस्य संद्य तेः। विद्यते नगरं नाम्ना पद्मिनीखेटकं महत् ॥३३॥ तस्मिन्निम्बकुलोद्भूतः प्रभुविपरिणनामभूत् । ख्यातः सागरसेनाख्यः स्थित्याकलितसागरः ॥३४॥ तस्यामितमतिर्नाम्ना विशुद्धमतिसंयुता । रमणी रमणीयाङ्गी धर्मोध क्ता प्रियाभवत् ।।३।। सयोः कालेन बम्पत्योर्बभूबतुरुभौ सुतौ । ज्यायान्दत्तस्तयोर्नाम्ना नन्विषेणस्तथा परः ॥३६॥ पितयु परते. कालादशिक्षितकलागुणौ । तावनीगमता'मर्थमनर्थनिरतौ क्षयम् ॥३७।। मैर्षन्यान् व्याकुलीभूतमानसो मानशालिनौ। स्वापतेयार्जनोद्य क्तौ तौ नागपुरमीयतुः॥३८॥ मौल्यं तत्पुरवास्तव्यात्पितृमित्रादवाप्य तौ। बरिणज्या समं वैश्वर्जग्मतुः स्थलयात्रया ॥३९॥ अर्जयित्वा यथाकामं सिद्धयात्रतया धनम् । ताम्यां प्रतिनिवृत्ताम्यां प्राप्त शङ्खनदीतटम् ॥४॥
हितोपदेशक कहते हैं ॥२८।। रोग से पीड़ित चतुर्विधसंघ में औषध, शारीरिक सेवा तथा वचनों के द्वारा उनके रोग का प्रतिकार करना औषध दान कहलाता है ॥२६॥ औषध, अभय, शास्त्र और अन्नदान के फल से यह मनुष्य नीरोग, निर्भय हृदय, सर्वज्ञ और भोगवान् होता है ।।३०।। न तुम पात्र हो और न यह देय है । सन्मार्ग के ज्ञाता ज्ञानी पुरुष कष्ट के समय भी अकार्य नहीं करते हैं ॥३१।। इस राजीव पर आप अपना पुराना वैर छोड़ो। आप दोनों के वैर का सम्बन्ध मैं कहता हूं सावधान होओ ॥३२॥
इस कान्ति संयुक्त जम्बूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र में पद्मिनीखेट नामका एक बड़ा नगर है ॥३३॥ उसमें वैश्य कुलोत्पन्न तथा मर्यादा से समुद्र की उपमा प्राप्त करने वाला सागरसेन नामका एक वैश्य शिरोमणि था ॥३४॥ उसकी अमितमति नामकी स्त्री थी। जो विशुद्ध बुद्धि से सहित थी, सुन्दर शरीर बाली थी, धर्म में सदा तत्पर रहती थी और पति को अत्यन्त प्रिय थी ॥३५॥ उन दोनों के कालक्रम से दो पुत्र हुए बड़े पुत्र का नाम दत्त और छोटे पुत्र का नाम नन्दिषेण था ॥३६॥ उन दोनों पुत्रों ने कोई कला तथा गुण नहीं सीखे तथा अनर्थकारी कार्यों में संलग्न हो गये। इसलिये पिता का देहान्त होने पर उन्होंने कुछ समय में ही धन नष्ट कर दिया ॥३७।। निर्धनता के कारण उनका मन व्याकुल हो गया । अन्त में मान से सुशोभित वे दोनों धन कमाने के लिये उद्यत हो नागपुर गये ॥३८॥ उस पद्मिनीखेट नगर में उनके पिता का एक मित्र रहता था उससे पूजी लेकर वे व्यापार के लिए वैश्यों के साथ स्थल यात्रा से गये ॥३६।। उनकी यात्रा सफल हुई इसलिए इच्छानुसार धन कमाकर लौटे । लौटते समय वे शङ्ख नदी के तट पर आये ॥४०॥ बड़ा भाई दत्त श्रम से दुखी हो गया था इसलिए
१ सय ते: ब० १ मृते २ प्रापयताम् ३ धनोपार्जन तत्परौ ४ मूलद्रव्यम् ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org