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द्वादशः सर्गः
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ज्येष्ठस्तस्मिन् हवोपान्तरूढजम्बूत रोस्तले । प्रशेत शीतलच्छाये पीततोयः श्रमातुरः || ४१ || हनिष्यामीति तं लोभात्कनीयान्समचिन्तयत् । केषां मनः सकालुष्यं कषायैनं विधीयते ||४२ || तस्य 'कौक्षेयकापाताज्ज्यायान्सुप्तोत्थितोऽवधीत् । तं पुनः कुपितावेवं तावन्योन्यं प्रजघ्नतुः ||४३|| परस्परासिघातेन तौ पतित्वा व्ररणाचितौ । हृदस्य मम्रतुमंध्ये ग्राहप्रस्तान्त्रमण्डलो ॥४४॥ तत्रैवोपवने रम्ये वत्तः पारावतोऽभवत् । नन्विषेरणोऽभवस्त्वश्च श्येनो निर्दयमानसः || ४५ ॥ इति भूपतिना प्रोक्तं स्वस्य श्रुत्वा पुराभवम् । खगौ जातिस्मरौ भूत्वा स्वतो वैरं निरासताम् ॥ ४६ ॥ साबुद्वाष्पदृशौ भूयः कूजन्तौ गद्गदस्वरम् । अन्योऽन्यं पक्षपालिभ्यां प्रीतावाश्लिक्षतां क्षरणम् ॥४७॥ तयोविस्पष्टवाक्यस्य कारणं करुणापरः । श्रभ्यधादिति भूपेन्द्रो भ्रात्रा पृष्टोऽतिकौतुकात् ||४८ ॥ संजयन्त्याः पुरा । स्वामी संजयो नाम खेचरः । दमितारिवधे जघ्ने क्रुधानिध्नेन यो मया ॥ ४६ ॥ संसृतौ सुचिरं कालं स संसृत्याभवत्सुतः । तापसस्यायसोमस्य श्रीदत्तागर्भसंभवः ।। ५० ।। सरितो निर्वृतेस्तोरे कैलासोपान्तिकस्थितेः । प्रचरत्स तपो घोरं प्रकाशे काश्यपाश्रमे ॥ ५१ ॥ ऐशानं कल्पमासाद्य चिराय तपसः फलात् । सुरः सुरूप इत्यासीन्नाम्ना च वपुषा च सः ॥ ५२ ॥
पानी पीकर ह्रद के समीप उत्पन्न जम्बू वृक्ष के शीतल छाया से युक्त तल में सो गया || ४१ ॥ लोभवश छोटे भाई ने विचार किया कि मैं इसे मार डालू ं । ठीक ही है क्योंकि कषायों के द्वारा किनका मन कलुषित नहीं किया जाता ? ॥ ४२ ॥ उसकी तलवार पड़ने से बड़ा भाई सोते से उठ खड़ा हुआ और छोटे भाई को मारने लगा । इस प्रकार क्रोध से भरे हुए दोनों भाई परस्पर एक दूसरे को मारने लगे ॥४३॥ परस्पर तलवार के प्रहार से दोनों घायल होकर हद के बीच में गिर कर मर गये तथा मगरमच्छों ने उनकी प्रांतों के समूह खा लिये || ४४ | | उसी नगर के सुन्दर उपवन में दत्त तो कबूतर हुआ और तू नन्दिषेण क्रूर हृदय बाज हुआ है ।। ४५ ।। इस प्रकार राजा के द्वारा कहे हुये अपने पूर्वभव को सुनकर दोनों पक्षियों को जाति स्मरण हो गया जिससे उन्होंने स्वयं ही वैर छोड़ दिया ॥४६॥ जिनके नेत्रों से आंसू निकल रहे थे तथा जो बार बार गद्गद् स्वर से शब्द कर रहे थे ऐसे प्रीति से युक्त दोनों पक्षी क्षरण भर अपने पलों से परस्पर प्रालिङ्गन करते रहे ।। ४७ ।। भाई दृढ़ रथ अत्यधिक कौतुक के कारण राजा मेघरथ से उन पक्षियों के मनुष्य के समान स्पष्ट बोलने का कारण पूछा इसलिए दयालु होकर वे इस प्रकार कहने लगे ||४८ ||
संजयन्तीपुर का स्वामी एक संजय नाम का विद्याधर था जो दमितारि के वध के समय क्रोध के अधीन हुए मेरे द्वारा मारा गया था ||४६ || संसार में चिरकाल तक भ्रमरण कर वह सोम नामक तापस का उसकी श्रीदत्ता स्त्री के गर्भ से उत्पन्न होने वाला पुत्र हुआ ||५० || उसने कैलास पर्वत के समीप में स्थित निर्वृति नामक नदी के तीर पर काश्यप ऋषि के आश्रम में प्रकाश में बैठकर घोर तपश्चरण किया ।। १५१ ।। चिरकाल बाद वह तप के फल से ऐशान स्वर्ग को प्राप्तकर नाम और शरीर दोनों से
१ खड्गनिपातातु २ मारित: ।
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