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________________ द्वादशः सर्गः कर्मभिः प्रेर्यमाणः सजीवो गतिचतुष्टये । 'निविशन् सुखदुःखानि बम्भ्रमीति समन्ततः ॥१६॥ संसारोत्तरणोपायो नान्योऽस्ति जिनशासनात् । भव्येनैवाप्यते तच्च नाभव्येन कदाचन ॥१७॥ तस्मिन्मौपासको धर्मो निर्मलः स्याच्चतुर्विषः । शीलोपवासवानेज्यास्तत्प्रकाराः प्रकीर्तिताः ॥१८॥ दानं चतुर्विधं तेषु दानशीलाः प्रचक्षसे । माहारामयशास्त्राणि भेषजं चेति तद्भिवाः ॥१६॥ दानेष्वाहारदानं च पञ्चधेति प्रवर्तते । विधिव्यं प्रदाता च पात्रं फलमिति क्रमात् ॥२०॥ अभ्युत्थानं सुमूः शौचं पादयोरर्चना नतिः । त्रिशुद्धिरमसः शुद्धिरिति स्यान्नवधा विधिः ॥२१॥ योग्यायोग्यात्मना द्रव्यं विषा तेषु विभिद्यते । काल्याणिकं भवेद्योग्यमयोग्यं कनकादिकम् ॥२२॥ श्रद्धा शक्तिः क्षमा भक्तिनि सत्वमलुपता। इति सप्त वदान्यस्य वदान्यैरीरिता गुणाः ॥२३॥ पात्रं च त्रिविधं तस्मिन्नुत्तमः संयतो मतः। विरताविरतस्थोऽपि मध्यमः संप्रकीर्तितः ॥२४॥ तत्रासंयतसदृष्टिर्जघन्यं पात्रमीरितम् । मिध्याहृष्टिरपात्रं स्याविति पात्रविषिः स्मृतः ॥२५॥ स्वर्गमोगभुवा सौख्यं पात्रदानस्य सत्फलम् । 'इतरस्यापि वानस्य स्यात्फलम् कुमनुष्यता ॥२६॥ द्विवाभयदानं स्यात् विध्यामृत 'संहतः । प्रपोगकरणं सच्च असेषु स्थावरेषु च ॥२७॥ प्रेरित हुआ जीव चारों गतियों में सुख दुःख को भोगता हुआ सब ओर भटक रहा है ।।१६।। संसार से पार होने का उपाय जिन शासन के सिवाय दूसरा नहीं है । वह जिनशासन भव्य जीव को ही प्राप्त होता है अभव्य जीव को नहीं ॥१७॥ उसमें श्रावक का निर्मल धर्म चार प्रकार का कहा गया है१ शील व्रत २ उपवास ३ दान और ४ पूजा ॥१८।। इन चार प्रकार के श्रावक धर्मों में दान शील मनुष्य दान के चार भेद कहते हैं-आहार, अभय, शास्त्र और औषध ।।१६।। उपर्युक्त दानों में आहार दान, क्रम से विधि द्रव्य, प्रदाता, पात्र और फल के भेद से पांच प्रकार का प्रवर्तता है ॥२०॥ सामने जाकर पड़गाहना, उच्चासन, पाद प्रक्षालन, पूजा, नमस्कार, मनशुद्धि, वचनशुद्धि, काय शुद्धि, और आहार शुद्धि यह नौ प्रकार की विधि है ॥२१॥ योग्य और अयोग्य के भेद से द्रव्य दो प्रकार का है । कल्याणकारी वस्तु योग्य द्रव्य कहलाती है और सुवर्णादिक अयोग्य द्रव्य ॥२२॥ श्रद्धा, शक्ति, क्षमा, भक्ति, ज्ञान, सत्त्व और अलुब्धता; दाता के ये सात गुण दान शील मनुष्यों ने कहे हैं ॥२३॥ पात्र तीन प्रकार का है । उनमें उत्तम पात्र मुनि माने गये हैं विरता विरत गुणस्थान में स्थित देशवती मध्यम पात्र कहे गये हैं और अमंयत सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र कहा गया है । मिथ्यादृष्टि अपात्र होता है । इसप्रकार पाविधि कही गयी है ॥२४-२५॥ स्वर्ग और भोगभूमि का सुख पात्रदान का उत्तम फल है । कुपात्र दान का फल कुभोग भूमि का मनुष्य होना है ॥२६॥ चूकि जीव समूह दो प्रकार का है अतः अभयदान भी दो प्रकार का है । त्रस तथा स्थावर जीवों को पीड़ा नहीं पहुंचाना अभयदान है ॥२७।। चार अनुयोगों के भेद से उन दानों में शास्त्र दान चार प्रकार का है ऐसा भव्य जीवों के १ भुजानः २ श्रावकीयः • एषा पंक्तिः म प्रती त्रुटिता ३ भोजनस्य ४ दातुः ५ कुपात्रदानस्म ६ जीवसमूहस्य । २. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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