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________________ १५२ श्रीशान्तिनाथपुराणम् सत्स्वसत्स्वपि सत्त्वेषु 'समवृत्तेस्तवाधुना। कोऽधिकारः शमस्थस्य मत्तस्त्रातुमिमं खगम् ॥६॥ मन्येथा यदि भीतस्य धर्मः संरक्षणाविति । : मरणात्स्यावधर्मोऽपि ममैवमशनायता ॥७॥ दृश्यते सर्वभूतेषु कृपा ते कृतकेतरा । मत्पापात्सापि मय्येव निरपेक्षा प्रवर्तते ॥८॥ राज्ञो मेघरथस्याने मृतः श्येनो बुभुक्षया । इति संभृतकोतस्ते मा भूत्कीति विपर्ययः ।।६।। प्रस्य वान्यस्य वा मांसः प्राणान्व्या शिनो मम । ईशिषे त्वं परित्रातुं सर्वभूतहितोद्यतः ॥१०॥ इत्यादाय वचः श्येनो विरराम महीभुजः । लीयमानं तमुत्सङगे पश्यन्पारापतं रुषा ॥११॥ प्रबोधि क्षणमात्रेण परावावधि प्रभुः । पक्षिरणोः प्राक्तनं वैरं प्रवृत्ति च तदातनीम् ॥१२।। ततो विशापतिः श्येनमित्युवाच शनैः शनैः । धाभिलम्भयन्वाग्भिस्तन्मनः प्रशमं परम् ॥१३॥ जिनरनादिरित्युक्तः सम्बन्धो जीवकर्मणोः । पिण्डशुद्धस्वरूपस्तु जीवस्त्रेधावतिष्ठते ॥१४॥ एक कर्म च मामान्यात्तद्भदाद्भिद्यतेऽष्टधा । हेतवः कर्मणां योगाः कषायवशतः स्थितिः ।।१।। हुए हैं और शान्तभाव में स्थित हैं तब मुझसे इस पक्षी की रक्षा करने का आपको क्या अधिकार है ? ॥६।। यदि आप ऐसा मानते हैं कि भयभीत पक्षी की रक्षा करने से धर्म होता है तो इस तरह मुझ भूखे का मरण होने से अधर्म भी तो होगा ।।७।। अापकी सब प्राणियों पर स्वाभाविक दया दिखायी देती है परन्तु मेरे पाप से वह दया भी एक मेरे ही विषय में निरपेक्षा हो रही है। भावार्थआप सब पर दया करते हैं परन्तु मेरे ऊपर आपको दया नहीं आ रही है ।।८।। एक बाज भूख से राजा मेघरथ के आगे मर गया यह अपकीर्ति आपकी नहीं होनी चाहिये क्योंकि आपकी कीर्ति सर्वत्र छायी हई है ।।६आप सब प्राणियों का हित करने में उद्यत हैं अतः इस कबूतर के अथवा किसी अन्य जीव के मांस से मुझ मांसभोगी की प्राण रक्षा करने के लिये समर्थ हैं ॥१०॥ इस प्रकार के वचन कह कर वह बाज चुप हो रहा । वह राजा की गोद में छिपते हुए कबूतर को क्रोध से देख रहा था ॥११॥ राजा मेघरथ अपने अवधिज्ञान को उस ओर परावर्तित कर क्षणभर में उन पक्षियों के पूर्वभव सम्बन्धी वैर और उनकी तत्काल सम्बन्धी प्रवृत्ति को जान गये ।।१२।। तदनन्तर राजा मेघरथ धर्मयुक्त वचनों से उस बाज पक्षी के मन को धीरे धीरे परम शान्ति प्राप्त कराते हुए इसप्रकार कहने लगे-।।१३॥ जिनेन्द्र भगवान् ने जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि है ऐसा कहा है और जीव भी बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा के भेद से तीन प्रकार का है ॥१४॥ कर्म सामान्य से एक है परन्तु उत्तर भेदों की अपेक्षा आठ प्रकार से विभक्त हो जाता है । योग, कर्मों के हेतु हैं अर्थात् योगों के कारण कर्मों का आस्रव होता है और कषाय के वश उन कर्मों में स्थिति पड़ती है ॥१५॥ कर्मों से ममैतमशनायतः ब० ४ अशन मिच्छतः समानव्यवहारस्य २ मत्सकाशात् ३ पक्षिणम् बुभुक्षोरित्यर्थः ५ अकृत्रिमा ६ अकोति। ७ मांसभोजिनः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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