SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 196
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ HomeDERememon* द्वादशः सर्गः Recenezzrezzrecaeneze* अथ तस्य भुवो भतुंः समुद्धतुर्धनायताम् । व्यतीपुरसमस्यापि 'समाः काश्चित्सुखान्विताः ॥१॥ जातु कार्तिकमासस्य ज्योत्स्नापक्षे समामते। अघोषयवमोघाज्ञो 'माघातं परितः पुरीम् ॥२॥ स्थित्वा चाष्टमभक्तेन स स्वभक्तजनैः समम् । जिनस्याष्टाह्निकी पूजां कुर्वन्नास्ते जिनालये ॥३॥ पाययौ शरणं कश्चिद्धीतः पारापतोऽन्यदा। पाहि पाहीति भूपालं वदन् विस्पष्टया गिरा ॥४॥ श्येनोऽपि तदनु प्रापत्तं जिघांसुर्बलोद्धता। विस्मितैर्वोक्यमाणोऽथ सभ्यरित्याह भूपतिम् ॥५॥ द्वादश सर्ग अथानन्तर पृथिवी के भर्ता और धन के इच्छुक-निर्धन मनुष्यों का उद्धार करने वाले वे राजा मेघरथ यद्यपि असम थे-समा-वर्षों से रहित थे (परिहार पक्ष में उपमा से रहित थे) तथापि उनकी सुख से सहित कितनी ही समा-वर्षे व्यतीत हो गयी थीं ॥१॥ किसी समय कार्तिक मास का शुक्ल पक्ष आने पर अव्यर्थ प्राज्ञा के. धारक राजा मेघरथ ने नगरी में चारों ओर घोषणा कराई कि कोई जीव किसी जीव का घात न करे ।।२।। और स्वयं तेला का नियम लेकर अपने भक्तजनों के साथ जिनेन्द्र भगवान् को आष्टाह्निक पूजा करते हुए जिन मन्दिर में बैठ गये ॥३॥ अन्य समय एक भयभीत कबूतर स्पष्ट वाणी से रक्षा करो, रक्षा करो इस प्रकार राजा से कहता हुआ उनकी शरण ॥४॥ उसके पीछे ही बल से उद्धत एक बाज पक्षी भी जो उस कबूतर को मारना चाहता था, आ पहुंचा। आश्चर्य से चकित सभासद उस बाज पक्षी की ओर देख रहे थे। आते ही बाज ने राजा से इस प्रकार कहा ॥५।। जब आप इस समय अच्छे और बुरे-सब जीवों पर समवृत्ति रक्खे १ वर्षाणि 'हायनोऽस्त्री शरत्समाः' इत्यमरा २ 'कश्चित्कस्यचिद् घातं न करोतु' इत्याज्ञाम् ३ दिनत्रयोपवासेन ४ कपोत: ५ हन्तुमिच्छुः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy