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________________ एकादश: सर्ग: १४६ सहस्रांशुखहस्त्रौघभासमानेन तेजसा । अन्तर्बहि । स्वदेहस्य भासमानेन संयुतः ॥ १५१ ॥ निराधिः साधितात्मार्थी निष्कलः पुष्कलः श्रिया । धनश्वरः स्वभावेन कान्तो विद्यामहेश्वर । ॥। १५२ ॥ निरञ्जनं तमीशानं भव्या नामभिरञ्जनम् । जिनेन्द्रं प्रारणमद्भक्त्या सुभृद्विद्याभृता समम् ।। १५३ ।। थ हेमरथः पीत्वा तद्वाक्यामृतमञ्जसा । वीततृष्णः प्रथव्राज विमुक्तिसुखलोमितः ॥ १५४ ॥ शार्दूलविक्रीडितम् भक्त्या तस्य जिनेश्वरस्य चरणावाराधनीयौ सतां श्राराध्य श्रुतिपेशलं' श्रवरणयोः कृत्वा तदीयं वचः । रुन्धानस्तपसि प्रसह्य नितरामुत्कण्ठमानं मनो सूपः कालमपेक्ष्य कालविदसौ प्रायात्पुरं स्वं पुनः ॥ १५५ ॥ धीरः कारुणिकः प्रदानरसिकः सन्मार्गविन्निर्भयो नान्योऽस्मान्नृपतेरिति प्रियगुणैरुद्घष्यमारणो जनैः । और वृद्ध इन तीन अवस्थाओं से रहित थे ) तथा सर्व हितकारी हो कर भी उग्रशासन कठोर आज्ञा से युक्त (पक्ष में अनुल्लङ्घनीय शासन से सहित ) थे ।। १५० ।। जो भीतर हजारों सूर्य समूहों के समान देदीप्यमान केवलज्ञान रूप तेज से सहित थे तथा बाहर अपने शरीर के देदीप्यमान भामण्डल रूप तेज से युक्त थे ।। १५१।। जो मानसिक व्यथा से रहित थे, कृत कृत्य थे, निष्कलंक थे, लक्ष्मी से परिपूर्ण थे, अविनाशी थे, स्वभाव से सुन्दर थे और विद्यात्रों के महास्वामी थे ।। १५२ ।। ऐसे निरञ्जन - कर्म कालिमा से रहित, ऐश्वर्य सम्पन्न तथा भव्यजीवों को आनन्दित करने वाले उन जिनराजधनरथ केवली को राजा मेघरथ ने विद्याधर राजा हेमरथ के साथ प्रणाम किया ।। १५३ ।। तदनन्तर उनके वचनामृत को पीकर जो सचमुच ही तृष्णा रहित हो गया था तथा मुक्ति सुख से लुभा रहा था ऐसे हेमरथ ने दीक्षा ले ली ।। १५४ ।। उन जिनेन्द्र भगवान् के सत्पुरुषाराधित चरणों की भक्ति से आराधना कर तथा श्रुतिसुभग वचन सुनकर तप के लिए अत्यन्त उत्कण्ठित होने वाले अपने मन को जिन्होंने बल पूर्वक रोका था ऐसे समय के ज्ञाता राजा घनरथ समय की प्रतीक्षा कर अपने नगर को पुनः वापिस गये ।। १५५ ।। इस राजा के सिवाय धीर, दयालु, दान प्रेमी, सन्मार्ग का ज्ञाता तथा निर्भय दूसरा राजा नहीं है इस प्रकार गुणों के प्रेमी लोग जिनकी उच्च स्वर से घोषणा कर रहे थे ऐसे राजा घनरथ अपनी १ कर्णप्रियम् २ कालज्ञः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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