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________________ १४८ श्रीशांतिनाथपुराणम् अनन्तरं गुरोरेष 'प्रकृतीरनुरजयन् । व्यधावृद्धि श्रियः श्रीमान्पुत्रो हि कुलदीपकः ।।१४०।। शसिकापि विवश्च्युत्वा सैषा प्राप्य शुभा गतीः । नाम्ना पबनवेगेति वर्ततेऽस्य प्रियाधुना ॥१४॥ जन्मान्तरसहस्राणि विरहः प्राणिनां प्रियः । कर्मपाकस्य वैषम्यात्स्यात्साम्याच्च समागमः ॥१४२॥ जिनधर्मानुरागेण निषेव्यामितवाहनम् । निवृत्त्यागच्छतोस्यास्थाद्विमानं व्योम्नि मानिनः ॥१४३।। मामत्र स्थितमालोक्य विमानस्तम्भकारणम् । उन्मूल्य क्षेप्तुमैहिष्ट शैलमामूलतोऽप्ययम् ॥१४४॥ इति खेचरनाथस्य पुरामवमशेषतः । अभिधाय स्वरामाया विरराम महीपतिः ॥१४॥ सेवरेणास्ततः पुत्वा नरेन्द्रादात्मनो भवम् । मुमुदे न मुदे केषां स्ववृत्तं सद्भिरीरितम् ॥१४६।। तस्मिन्काले विनिर्धूय घातिकर्मचतुष्टयम् । प्रथान्त्यिश्रियं प्रापद्धघानाधनरथोऽनघाम् ॥१४७॥ प्रायाज्जिनपतेः पादौ नन्तु तस्य क्षतैनसः । भूपो देवागमं वीक्ष्य समं हेमरथेन सः ॥१४॥ प्रतिकौतुकमत्युखमतिपूतं समुन्नतम् । तेन तत्पदमासेवे राज्ञा लक्ष्म्या समं ततः ॥१४६॥ चतुस्त्रिशद्गुणोऽप्येकस्त्रिदशोपासितोऽप्यलम् । यो वीतत्रिदशोऽराजसार्वोऽप्यत्युप्रशासनः ॥१५०॥ का धारक पुत्र हुआ ।।१३६।। तदनन्तर मन्त्री आदि प्रजाजनों को अनुरक्त करते हुए उस लक्ष्मीमान् पुत्र ने पिता की लक्ष्मीवृद्धि की सो ठीक ही है क्योंकि पुत्र कुलदीपक-कुल को प्रकाशित करने वाला होता है ।।१४०। वह शङ्खिका भी स्वर्ग से चय कर तथा शुभगतियों को प्राप्त कर इस समय इसकी पवनवेगा नामकी स्त्री हुई है ।।१४१॥ कर्मोदय की विषमता से प्राणियों का प्रेमी जनों के साथ हजारों जन्मों तक विरह रहता है और कर्मोदय की समानता होने पर समागम होता है ॥१४२॥ जिनधर्म के अनुराग से अमितवाहन की सेवा कर वापिस आते हुए इस मानी का विमान आकाश में अटक गया ।।१४३।। यहां बैठे हुए मुझे देखकर इसने समझा कि विमान के रुकने का कारण यही है इसलिए यह इस पर्वत को जड़ से उखाड़ कर फेंकने की चेष्टा करने लगा ॥१४४।। इस प्रकार राजा मेघरथ अपनी प्रिया के लिए विद्याधर राजा का पूर्वभव पूर्णरूप से कह कर चुप हो गये ।।१४५॥ __ तदनन्तर विद्याधर राजा, मेघरथ से अपना पूर्व भव सुनकर प्रसन्न हुआ सो ठीक ही है क्योंकि सत्पुरुषों के द्वारा कहा हुआ अपना वृत्तान्त किनके हर्ष के लिए नहीं होता? ||१४६।। तदनन्तर उसी समय धनरथ मुनिराज शुक्ल ध्यान से चार घातिया कर्मों को नष्ट कर निर्मल अर्हन्त्य लक्ष्मीअनन्त चतुष्टय रूप विभूति को प्राप्त हुए ॥१४७।। देवों का आगमन देख राजा मेघरथ पापों को नष्ट करने वाले उन जिनराज के चरणों को नमस्कार करने के लिए हेमरथ के साथ गये ।।१४८।। तदनन्तर जो अत्यन्त कौतुक से युक्त था, अतिशय श्रेष्ठ था, पवित्र था, समुन्नत था, और लक्ष्मी से सहित था ऐसा उन जिनराज का स्थान राजा मेघरथ ने प्राप्त किया ॥१४६।। जो चौंतीस गुणों से सहित होकर भी एक थे (परिहार पक्ष में अद्वितीय थे), त्रिदशोपासितदेवों के द्वारा अच्छी तरह उपासित हो कर भी वीतत्रिदश-देवों से रहित थे (पक्ष में बाल यौवन - १मन्व्यादिवर्गान २ नष्टपापस्य ३ चतुस्त्रिशदतिशय सहितः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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