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________________ एकादशः सर्ग धर्मोद्युक्तमतिः प्राप्य शङ्खपर्वतवतिनम्। सर्वगुप्तं ननामासो त्रिगुप्तिसहितं मुनिम् ॥१२८॥ तस्मात्सागारिकं धर्म गृहीत्वा गृहिणीसखः । चतुर्गुणाष्ट'कल्याणमुपवासमुपावसत् ॥१२९।। महाधृतिस्तदन्तेऽसौ लब्ध्वा व्रतषरं यतिम्। काले गृहागतं तुष्यन्नन्यसा समतर्पयत ॥१३०॥ ध्रियमाणः कलत्रस्य प्रेम्णा चारित्रशालिना। उपस्थित शमस्थोऽपि किश्चित्कालं गृहस्थिती ॥१३१॥ बोधिनोपशमेनापि स विधायाधिसंयमम् । मनः सुनिश्चलं घोरो निवधावधि संयमम् ।।१३२॥ मुनेः समाधिगुप्तस्य पावावानम्य सौम्यधीः । माददे स तपश्चर्या कल्यों भार्यया समम् ॥१३३॥ एकाप्रमनसापीयनाचाराङ्गान्यसंगतः । उपावसबपाचारं मुनिराचाम्ल"वनम् ॥१४॥ स चतुष्टयमाराध्य हित्वा वेणुवने' वपुः। शार्णवस्थितौ जज्ञे ब्रह्मलोके सुरोत्तमः ॥१३॥ शबिकाप्यमवद्देवी सौधर्मे स्वेन कर्मणा । परिणामवशाल्लोके भिन्ना स्त्रीपुंसयोर्गतिः ।।१३६।। राजा विद्यद्रथो नाम राजमानमहोदयः । अशेषितारिरशिषविजयामशेषतः ।।१३७॥ सस्य मानसवेगाख्या महादेवी विवस्पते । 'पौलोमीवाभवत्कान्ता गुणैरनिमिषेभरणा ॥१३८॥ तयोर्महात्मनोरेष ताम्यतोः पुत्रकाम्यया' । पुत्रो हेमरथाल्योऽभूत्सत्यवाचनवद्यधीः ॥१३॥ तीन गुप्तियों से सहित सर्वगुप्त नामक मुनिराज के पास जा कर उन्हें नमस्कार किया ॥१२८।। स्त्री सहित उस महावत ने उन मुनिराज से श्रावक का धर्म ग्रहण कर द्वात्रिंशत् कल्याण नामका उपवास किया ।।१२६ ।। महाधैर्य शाली उस महावत ने उपवास के पश्चात् चर्या के समय घर पर पधारे हुए व्रतधर मुनिराज को प्राप्त कर हर्षित हो आहार से संतुष्ट किया ।।१३०।। यद्यपि वह महावत शमभाव में स्थित था-गृह त्यागकर दीक्षा लेना चाहता था तो भी स्त्री के चारित्र से सुशोभित प्रेम से रुककर कुछ समय तक गृहस्थावस्था में उदासीन भाव से स्थित रहा ॥१३१॥ आत्मज्ञान और उपशमभाव से सहित उस धीर वीर ने अपने संयमसुवासित मन को संयम में निश्चल किया ।।१३२।। सौम्य बुद्धि से युक्त उस दरिद्र वैश्य (महावत) ने समाधिगुप्त मुनि के चरणों को नमस्कार कर स्त्री के साथ तपश्चर्या को स्वीकृत कर लिया ॥१३३।। निर्गन्थ मुनि ने एकाग्रचित्त से प्राचाराङ्ग-चरणानुयोग के शास्त्रों का स्मरण कर प्राचार शास्त्र के अनसार प्राचाम्लवर्धन नामका उपवास किया ॥१३४॥ पश्चात् चार आराधनाओं की आराधना कर तथा बांसों के वन में शरीर छोड़कर वह दश सागर की स्थिति वाले ब्रह्मलोक में उत्तम देव हुआ ।।१३५।। शङ्खिका भी अपने कर्म से सौधर्म स्वर्ग में देवी हुई सो ठीक ही है क्योंकि लोक में परिणामों के वश से स्त्री और पुरुषों की भिन्न भिन्न गति होती है ॥१३६।। जिसका महान् अभ्युदय शोभायमान था तथा जिसने शत्रुओं को समाप्त कर दिया था ऐसा विद्यु दरथ नामका राजा संपूर्ण रूप से विजयाध पर्वत का शासन करता था ।।१३७।। जिस प्रकार इन्द्र की इन्द्राणी होती है उसी प्रकार उस विद्य दुरथ की मानसवेगा नामकी महादेवी-पट्टरानी थी। वह मानसवेगा सुन्दर थी तथा गुणों से निमेषरहित नेत्रों वाली–देवी थी ।।१३८॥ पुत्र की इच्छा से विकल रहने वाले उन दोनों महानुभावों के यह देव हेमरथ नामका सत्यवादी तथा निष्कलङ्क बुद्धि १द्वात्रिंशद् २ भोजनेन ३ अधिगतःप्राप्तः संयमो येन तत् ४ संयमे इति अधिसंयमम् ५आचाम्लवर्धननामतपोविशेषम् ६ वंशवने ७ दशसागरस्थितियुक्त ८ इन्द्रस्य ९ इन्द्राणीव १० पुत्रेच्छया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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