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________________ १४६ श्रीशांतिनाथपुराणम् प्रात्मानमनुशोच्यैवं व्यरंसीखेचरेश्वरः । असत्कृत्वाप्यहो पाचावनुरोते' कुलोद्भवः ॥११॥ महीयस्तस्य सौन्वर्यमेश्वयं च विलोकयन् । भूपोऽपि विस्मयं भेजे का कथा प्राकृते जने ॥११॥ प्रियमित्रा ततोऽप्राक्षीप्रियमित्रं तमीश्वरम्। प्रदीप इव यद्घोषो 'हपिद्रव्ये प्रकाशते ॥११॥ किनामायं महाभागः खेचरः कस्य वा सुतः। केनेयं तन्यते लक्ष्मीरस्य शुद्ध न कर्मणा ॥१२०॥ दम्पत्योरनयोर्देव प्राक् सम्बन्धश्च कीदृशः । कृतकेतरमेतस्या: प्रेमास्मिन् दृश्यते यतः ।।१२१॥ इदमामूलतः सर्वमार्यपुत्र निवेदय । प्राश्चर्यः सकलेलोंके यतस्त्वतः प्रमूयते ॥१२२।। इति देव्या सपा पृष्टस्ततोऽवादीद्विसांपतिः। गम्भीरध्वनिना धीरं गिरेमुखरयन् गुहाम् ॥१२३॥ द्वीपस्य पुष्कराल्यस्य भारते विद्यते पुरम् । नाम्ना शङ्खपुरं कान्त्या स्वर्गान्तरमिवापरम् ॥१२४॥ तस्य गोप्तुरुदारस्य राजगुप्तः प्रियोऽप्यभूत् । गजतन्त्रेषु निष्णातो "महामात्रोऽतिदुर्गतिः ॥१२५॥ न विद्याव्यवसायाचा हेतवो जन्तुसंपदाम् । इत्यमन्यत यं वीक्ष्य वालिशोऽपि सवा जनः ।।१२६।। समानकुलशीलासीद्गेहिनी तस्य शङ्खिका । मूर्तब तन्मनोवृत्तिः प्रीतिविनम्भयोः स्थितिः ॥१२७॥ विदीर्ण नहीं हो रहा है-लज्जा से विखिर नहीं रहा है यह आश्चर्य की बात है ॥११६।। इस प्रकार विद्याधर राजा अपने आप के प्रति शोक कर-पश्चाताप से दुखी होकर चुप हो रहा सो ठीक ही है क्योंकि कुलीन मनुष्य असत् कार्य करके भी पीछे पश्चात्ताप करता है ।।११७॥ उस विद्याधर राजा के बहुत भारी सौन्दर्य और ऐश्वर्य को देखता हुआ राजा मेघरथ भी जब आश्चर्य को प्राप्त हो रहे थे तब साधारण मनुष्य की क्या कथा है ? ॥११८॥ तदनन्तर मित्रों से प्रेम करने वाले उन राजा मेघरथ से प्रियमित्रा ने पूछा जिनका कि ज्ञान रूपी द्रव्य-पुद्गल द्रव्य में किसी बड़े दीपक के समान प्रकाशमान हो रहा था ।।११६॥ यह महानुभाव विद्याधर किस नाम वाला है ? किसका पुत्र है ? और किस शुद्ध कर्म से इसकी यह लक्ष्मी विस्तृत हो रही है ? ।।१२०।। हे देव ! इस दम्पति का पूर्वभव का सम्बन्ध कैसा है ? क्योंकि इस स्त्री का इस पुरुष में अकृत्रिम प्रेम दिखायी दे रहा है ।।१२१।। हे आर्यपुत्र ! यह सब आप प्रारम्भ से बताइये क्योंकि लोक में आपसे समस्त आश्चर्य उत्पन्न होते हैं ॥१२२।। इस प्रकार रानी प्रियमित्रा के द्वारा पूछे गये राजा मेघरथ, गम्भीर ध्वनि से पर्वत की गुहा को मुखरित करते हुए धीरता पूर्वक बोले ।।१२३॥ पुष्कर द्वीप के भरत क्षेत्र में एक शङ्खपुर नामका नगर है जो कान्ति से ऐसा जान पड़ता है मानों दूसरा स्वर्ग ही हो ॥१२४। उस नगर के राजा उदार का राजगुप्त नामका एक महावत था जो हस्तिविज्ञान में कुशल था, राजा का प्रिय भी थ ज्ञान में कुशल था, राजा का प्रिय भी था परन्तु अत्यन्त दरिद्र था ॥१२५॥ जिसे देखकर मूर्ख मनुष्य भी सदा यह मानने लगता था कि जीवों की सम्पत्ति के हेतु विद्या तथा व्यवसाय आदि नहीं है ।।१२६।। उसकी समान कुल और समान शील वाली शङ्खिका नामको स्त्री थी जो प्रीति और विश्वास का स्थान थी तथा ऐसी जान पड़ती थी मानों उसकी मूर्तिधारिणी मनोवृत्ति ही हो ॥१२७।। जिसको बुद्धि धर्म में तत्पर रहती थी ऐसे उस महावत ने एक बार शङ्खपर्वत पर विद्यमान, ३ हस्तिविज्ञानेषु ४ निपुण: ५ 'महावती' इति प्रसिद्धः १ पश्चात्तापं करोति २ पुद्गलद्रमे ६ अत्यन्तदरिद्रः ७ मूर्योऽपि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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