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________________ एकादशः सर्गः १४५ सस्वामामभयं दातुं सतामोशत्वमीशिषे । यस्यैकापि कृपा चित्तमासाद्यानन्ततां गता ॥१०६॥ मद्भर्तुजंगतां भर्तः प्रसीवातीय सीदतः । स्वद्वामचरणाङ गुष्ठहेलाक्रान्त्याति'कूजतः ॥१०७॥ इति विज्ञापितो राजा तथा खेचरयोषया । अड गुष्ठं श्लथयामास कृपालुः क्रान्तभूषरम् ॥१०८।। ततो रसातलात्सद्यो निर्गत्य खबरेश्वरः। विश्लिष्टमौलिबन्धेन शिरसा प्रगनाम तम् ॥१०॥ न तथा निर्ववौ धान्तः स्वप्रियांशुकमारतः। यथा महीक्षितस्तस्य सुप्रसन्ननिरीक्षितः॥११०॥ क्षणमात्रमित्र स्थित्वा विश्रम्य विहिताक्जलिः । इति प्रसृतवाग्भूपं खेचरेन्द्रो व्यजिज्ञपत् ॥११॥ प्रात्मनश्चापलोकं निस्त्रपः किं क्वीम्यहम् । ममामूत्त्वन्महत्त्व प्रारिणतव्यस्य कारणम् ॥११२॥ भूयते हि प्रकृत्येव सानुक्रोशमहात्मभिः । केनान्तर्गन्धितोयेन संसिक्ताश्चन्दनब्रुमाः ॥११३॥ प्रक्षान्त्या सर्वत: क्षुद्रो व्याकुलीक्रियते नमः । सबोन्मार्गप्रवतिन्या भूरेणुरिव बास्यया ॥११४॥ जिघांसोहिशस्यैव शत्रोरम्याशतिनः । क्षन्तुमुत्सहते नान्यः समर्थो नीतिमान्नृपः ॥११॥ इत्थं कृतापराधेऽपि प्रसादमधुरेशरणम् । तवालोक्यामनं भर्तुर्न विशीर्ये नृशंसपोः ॥११६॥ पा कर एक ही कृपा अनन्तपने को प्राप्त हो गयी है ऐसे आप जीवों को अभय और सत्पुरुषों को स्वामित्व देने के लिये समर्थ हैं ।।१०६।। हे जगत् के स्वामी ! आपके बायें पैर के अंगूठे के दबाने से जो अत्यन्त दुखी हो रहा है तथा अत्यधिक चिल्ला रहा है ऐसे मेरे पति पर प्रसन्न होइये ।।१०७।। उस विद्याधरी के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर दयालु राजा ने पर्वत को दबाने वाला अगठा ढीला कर लिया ।।१०८।। तदनन्तर रसातल से शीघ्र ही निकलकर विद्याधर राजा ने जिसका मुकुटबन्धन अस्त व्यस्त हो गया था ऐसे शिर से राजा मेघरथ को प्रणाम किया ॥१०६।। थका हुआ वह विद्याधर राजा अपनी स्त्री के अंचल द्वारा की हुई हवा से उस तरह सुखी नहीं हुआ था जिस तरह उस राजा के अतिशय प्रसन्न अवलोकन से हुआ था ॥११०॥ क्षणमात्र ठहर कर तथा विश्राम कर जब वाणी निकलने लगी तब उस विद्याधर राजा ने हाथ जोड़कर राजा घनरथ से इस प्रकार कहा ।।११।। __ मैं निर्लज्ज अपनी चपलता के उद्रेक को क्या कहूं? मेरे जीवित रहने का कारण आपकी महत्ता ही है ।।११२।। महात्मा स्वभाव से ही दयालु होते हैं क्योंकि भीतर सुगन्धित जल से चन्दन के वृक्ष किसके द्वारा सींचे गये हैं ? भावार्थ-जिस प्रकार चन्दन के वृक्ष स्वभाव से ही सुगन्धित होते हैं उसी प्रकार महापुरुष स्वभाव से ही दयालु होते हैं ।।११३॥ जिस प्रकार सदा उन्मार्ग में चलने वाली आंधी के द्वारा पृथिवी की धूलि सब ओर से व्याकुल हो जाती है उसी प्रकार सदा कमार्ग में प्रवर्ताने वाली अक्षमा-क्रोधपरिणति के द्वारा क्षद्र जीव सब ओर से व्याकल कर दिया जाता है ।।११४॥ घात करने के इच्छुक तथा समीप में वर्तमान मेरे जैसे शत्रु को क्षमा करने के लिए अन्य नीतिमान् राजा समर्थ नहीं है ॥११॥ इस प्रकार मुझ दुष्ट बुद्धि ने यद्यपि आपका अपराध किया है तथापि आपका मुख प्रसाद मधुर नेत्रों से सहित है—आप मुझे प्रसन्नता पूर्ण मनोहर दृष्टि से देख रहे हैं। आपका मुख देख मैं १ अतिपूत्कुर्वतः २ संतुष्टोऽभूत् ३ सदयः ४ क्रूरधीः 'नृशंसो घातुकः क्रूरः' इतिकोष।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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