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________________ १४४ श्रीशान्तिनाषपुराणम् तस्य कामयमानस्य कामान्सत्पुत्रजन्मने । प्रभवत्प्रियमित्रायां तनयो नन्दिवर्षमः ॥१५॥ देव्यां दृढरपस्यापि सुमत्यां सुमतिः सुतः । धनसेनाल्यया ख्यातो बभूव धनवोपमः ॥६॥ अन्तःपुरोपरोधेन स देवरमरणं बनम् । मधुमासेऽन्यदा द्रष्टुं ययौ मेघरथो रथो ॥१७॥ अनुभूय यथाकामं 'मधुलक्ष्मी मधूपमः । क्रीडापर्वतमध्यास्त तत्र मध्यस्थवेविकम् ॥८॥ समतेरनन्तरं तस्य भूतो प्राप्य तदन्तिकम् । विविधर्वल्गनैवल्गु क्रीडन्ती चक्रतुर्मुवम् ॥६॥ इति सप्रमदं तस्मिस्तिष्ठति प्रमदासखे । क्रीडाचलस्ततोऽकस्माच्चचाल चलितोपलः ॥१००। सवामचरणा गुष्ठकान्त्या तं निश्चलं पुन: । व्यधात्वस्यत्प्रियाश्लेबसुखासन्तोऽपि भूधरम् ॥१०॥ उत्पादि ततो भूयानातनावः समन्ततः । उत्पातमारताघातक्षुभिताब्धेरिवोखतः ॥१०२।। विवः प्रादुरभूत्काचित् खेचरी साधुलोचना । प्राञ्जलिर्याचमाना तं पतिभक्षं पतिव्रता ॥१.३।। इत्यवादीत्तमानम्य सा साधु साधुवत्सलम् । अन्तःशोकानलप्लोषात्प्रम्लानवदनाम्बुजा ॥१०४॥ ब्रह्मयोऽपि महासत्वः क्षुद्रेभ्यो नैव कुप्यति । नकराहन्यमानोऽपि तानिरस्यति नाम्बुधिः ॥१०॥ . सत्पुत्र की उत्पत्ति के लिये कामभोग की इच्छा करने वाले राजा मेघरथ की प्रिय मित्रा रानी में नन्दिवर्धन नामका पुत्र उत्पन्न हुआ ॥६५॥ दृढ़ रथ की भी सुमति नाम की स्त्री में सद्बुद्धि का धारक, कुबेर तुल्य धनसेन नामका पुत्र हुआ ।।१६।। किसी समय अन्तः पुर के प्राग्रह से वे मेघरथ रथपर सवार हो चैत्रमास में देवरमण वन को देखने के लिये गये ।।१७।। इच्छानुसार वसन्त लक्ष्मी भोग कर मधतल्य राजा मेघरथ देवरमण वन के उस क्रीडा पर्वत पर बैठ गये जिसके बीच में वेदिका-बैठने का आसन बना हुआ था ॥९८॥ राजा के स्मरण करते ही दो भूत उनके पास प्रा गये और नाना प्रकार के सुन्दर नृत्य आदि के द्वारा क्रीडा करते हुए उन्हें हर्ष उपजाने लगे ॥१६॥ इस प्रकार स्त्रियों सहित राजा हर्ष से उस क्रीडापर्वत पर बैठे थे परन्तु अकस्मात् ही वह क्रीडा पर्वत चञ्चल हो उठा और उसके पाषाण इधर उधर विचलित होने लगे ॥१०॥ भयभीत स्त्रियों के आलिङ्गन सम्बन्धी सुख में आसक्त होने पर भी उन्होंने बायें पैर के अंगूठा से दबाकर उस पर्वत को फिर से स्थिर कर दिया ।।१०१।। तदनन्तर प्रलय काल की वायु के प्राघात से क्षुभित समुद्र के भारी शब्द के समान चारों ओर अत्यधिक आर्तनाद उत्पन्न हुआ ॥१०२॥ उसी समय कोई विद्याधरी प्राकाश से प्रकट हयी जो अश्रपूर्ण लोचनों से युक्त थी, हाथ जोड़े हयी थी पतिव्रता थी और उनसे पति को भीख मांग रही थी ।।१०३।। अन्तर्गत शोक रूपी अग्नि की दाह से जिसका मुखकमल मुरझा गया था ऐसी वह विद्याधरी सज्जनों से स्नेह करने वाले सज्जन मेघरथ को नमस्कार कर इस प्रकार कहने लगी ॥१०४॥ महाबलवान् पुरुष द्रोह करने वाले भी क्षुद्रजनों से कुपित नहीं होता है क्योंकि मगर मच्छों के द्वारा प्राघात को प्राप्त होने पर भी समुद्र उन्हें दूर नहीं करता है ॥१०५। जिसके चित्त को १वसन्तश्रियम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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