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एकादशः सर्गः एतत्समुदितं सर्वं भवतोरनुमीयते । अमुनागमनेनैव मृतसौहार्दचेतसोः ॥३॥ जायन्ते सत्सहायानां वाञ्छितार्थस्य सिद्धयः । अतो नस्त्वाशैमित्रः किं न पर्याप्तिमेष्यति ॥८४।। द्रष्टुं जिनालयान्पूतान्मर्त्यलोकेंव्वकृत्रिमान् । बुद्धिर्मे विद्यते भूरिविद्यमानावरपि ॥८॥ इत्युदोर्य 'विशां मर्ता व्यरंसोत्स्वमनोरवम् । प्रीतावित्याहतुर्भूतौ प्राप्यावसरमात्मनः॥८६॥ त्वं द्रष्टा प्रापकावावां दृश्या जैनालया जिनः । वन्द्योऽस्मानापरं किञ्चिच्चतुर्भद्रं जगत्त्रये ॥ इत्युक्त्वा तत्क्षणादेव राज्ञः स्वांसगतस्य तौ। दर्शयामासतुः कृत्स्नामकृत्रिमजिनालयान् ॥१८॥ जानेनावधिना पूर्व हण्टाम्पश्चादयात्मना । पुनरुक्तमिवालोक्य वन्दे तान्यथाक्रमम् ।।८।। क्षणाद्भूतसहाय्येन राज्ञा मित्य पिप्रिये। तीर्थयात्रामभीष्टेऽर्थे सिद्ध को न सुखायते ॥६॥ दृश्यमानः पुरं पौरैः सोऽविशद्भूतवाहनः । क्व गत्वा नमसायात इति संजातकौतुकैः ॥१॥ स राजकुलमासाद्य सद्यो भूतो विसृष्टवान् । वचसा प्रीतिबन्धेन न पुनश्चेतसा प्रभुः ।।२।। ततः सभागतो भूपः क्षणादिव समासदाम् । प्रोत्यानुमोदमानामां स्वप्रेक्षितमचीकथत् ।।३ इति धर्मानुरक्तात्मा राजमार्गस्थितोऽपि सः। प्रभूत्संयमिनां 'धुर्यः शमस्थः संयम विना ॥१४॥
कि साधु पुरुष के यह समस्त गुण आप दोनों में परिपूर्ण हैं ॥८३।। क्योंकि अच्छे सहायकों से सहित मनुष्यों के अभिलषित कार्यों की सिद्धियां होती हैं अतः आप जैसे मित्रों से हमारा कौन कार्य पूर्णता को प्राप्त न होगा ? ॥८४॥ यद्यपि मुझे अवधिज्ञान है तथापि मनुष्य लोक में विद्यमान पवित्र अकृत्रिम जिनालयों के दर्शन करने की मेरी भावना है ।।५।। इस प्रकार राजा अपने मनोरथ को प्रकट कर चुप हो गये । तदनन्तर अपने लिये अवसर प्राप्त कर प्रसन्न भूत इस प्रकार कहने लगे ॥८६॥
___ आप दर्शन करने वाले हैं, हम दोनों पहुंचाने वाले हैं, जिनालय दर्शनीय है और जिनेन्द्र देव वन्दनीय हैं इन चारों माङ्गलिक कार्यों से युक्त दुसरा कुछ भी कार्य तीनों जगत में नहीं है॥७॥ इतना कहकर उसीक्षण अपने कन्धे पर बैठे हुए राजा के लिये उन भूतों ने समस्त अकृत्रिम जिनालय दिखलाये ।।८८।। अपने अवधि ज्ञान के द्वारा जिन्हें पहले देख लिया था ऐसे जिनालयों को पश्चात् पुनरुक्त के समान देखकर राजा ने यथाक्रम से उनकी वन्दना की ॥८६॥ भूतों की सहायता से क्षणभर में तीर्थयात्रा को पूरा कर राजा मेघरथ बहुत प्रसन्न हुए सो ठीक ही है क्योंकि वाञ्छित कार्य के सिद्ध होने पर कौन सुखी नहीं होता है ? ॥१०॥ 'कहां जाकर आकाश से आये हैं इस प्रकार के कौतूहल से युक्त नगरवासी जिन्हें देख रहे थे ऐसे भूतवाहन-भूतों के कन्धे पर बैठे हुए राजा ने नगर में प्रवेश किया ॥११॥ स्वामी मेघरथ ने राजभवन को प्राप्तकर शीघ्र ही उन भूतों को विदा कर दिया। परन्तु प्रीति यूक्त वचनों से ही विदा किया था हदय से नहीं ॥१२॥ तदनन्तर.क्षणभर में ही मानों सभा में पहुंचे हुए राजा ने प्रीति से अनुमोदना करने वाले सभासदों को अपना प्रांखों देखा कहा ॥६३।। इस प्रकार राज मार्ग में स्थित होने पर भी जिनकी आत्मा धर्म में अनुरक्त थी तथा जो प्रशमगुण में स्थित थे ऐसे वे राजा मेघरथ संयम के बिना भी संयमियों में प्रधान हो रहे थे ।।१४।।
१प्रजानाम् २ प्रधानः ।
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